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हाइलाइट्स

गोविंद गुरु पढ़े लिखे तो नहीं थे लेकिन शिक्षा और चेतना के महत्व को समझते थे
उन्होंने भगत आंदोलन के जरिए लोगों को एकजुट किया और सामाजिक अलख जगाई
वह मानगढ़ में सालाना आयोजन करते थे तभी अंग्रेज सेना ने उन्हें घेर लिया

राजस्थान और गुजरात की सीमा पर स्थित बांसवाड़ा में गोविंद गुरु की छवि किसी भगवान की तरह है. लोग उन्हें पूजते हैं. इस इलाके के भील आदिवासी और बंजारा समुदाय के लोगों में गोविंद गुरु का दर्जा बहुत ऊंचा है. वह ना केवल इस इलाके के बड़े सामाजिक और धार्मिक सुधारक थे बल्कि उन्होंने आदिवासियों को एकजुट करने में उनकी बहुत बड़ी भूमिका थी. उन्होंने राजस्थान और गुजरात के आदिवासियों को साथ लेकर बड़ा आंदोलन खड़ा किया था.

उन्हें गोविन्द गिरि के तौर पर भी जानते हैं और गोविंद गुरु भी कहते हैं. उनका जन्म 1858 में हुआ और निधन 1931 में. उन्होेने युवावस्था में ही समझ लिया था कि जिस तरह आदिवासियों से राजे – महाराजे बेगार कराते हैं और कई कुरीतियों के कारण वो सम्मानित जीवन नहीं जी रहे हैं, उससे उन्हें छुटकारा दिलाना जरूरी है. लिहाजा उन्होंने ना केवल उन्हें एकजुट किया बल्कि उनके बीच जागरुकता भी फैलाई.

राजस्थान और गुजरात में भगत आंदोलन चलाया
गोविंद गुरु ने राजस्थान और गुजरात के आदिवासी बहुल सीमावर्ती क्षेत्रों में ‘भगत आन्दोलन’ चलाया. उनका जन्म 20 दिसम्बर, 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया (बेड़िया) गांव में गौर जाति के एक बंजारा परिवार में हुआ. बचपन से उनकी रुचि शिक्षा के साथ अध्यात्म में थी. उन्होंने अपनी गतिविधियों का केंद्र वागड़ क्षेत्र को बनाया.

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आदिवासियों में चेतना जगाने और एकजुट करने का काम
गोविंद गुरु ने न तो किसी स्कूल-कॉलेज में शिक्षा ली थी और न ही किसी सैन्य संस्थान में प्रशिक्षण पाया था. उन्होंने जब देखा कि इलाके के आदिवासी शिक्षा और चेतना के अभाव में खराब जीवन गुजार रहे हैं तो उन्होंने आदिवासी अंचल के लोगों के बीच अलख जगाने का काम किया. वो अपनी कविताओं से लोगों को संदेश देते थे. लोगों से मिलते थे. उन्हें जागरुक और एकजुट करने की कोशिश करते थे.

आंदोलन धार्मिक था लेकिन उद्देश्य सामाजिक सुधार
उन्होंने भगत आंदोलन 1890 के दशक में शुरू किया. आंदोलन में अग्नि देवता को प्रतीक माना गया. अनुयायियों को पवित्र अग्नि के समक्ष खड़े होकर पूजा के साथ-साथ हवन करना होता था. फिर उन्होंने संप सभा की स्थापना की. इसके जरिए उन्होंने इलाके के लोगों से शराब, मांस, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रहने के साथ मेहनत करके सादा जीवन जीने की प्रेरणा दी. बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा, स्वच्छता भी उनके मूलमंत्र थे.

लगान रोकने और विदेशी वस्तुओं के बायकाट की अपील की
उन्होंने ही इलाके के आदिवासियों से कहा कि अपने झगड़े खुद के स्तर पर पंचायत में सुलझाएं. राजे-रजवाड़ों की अदालत की ओर रुख नहीं करें. अन्याय नहीं सहें. अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान नहीं, बेगार बिल्कुल बंद करें और साथ विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करें. स्वदेशी के प्रचार के लिए वह गांव गांव घूमते थे.

अनुयायियों की तादाद बड़े पैमाने पर बढ़ने लगी
जल्दी ही उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी. लाखों भक्त बन गए. हर साल 17 नवंबर को मानगढ़ की पहाड़ी पर वह वार्षिक मेला आयोजित करते थे. जिसमें भारी संख्या में आदिवासी और अन्य इलाके के लोग घी के बर्तन और परंपरागत शस्त्र लेकर आते थे. मेले में सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं की चर्चा होती थी. इससे इस इलाके में ब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय रजवाड़ों के खिलाफ गुस्सा फैलने लगा.

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अंग्रेज सेना ने गोविंद गुरु के साथ अनुयायियों को घेर लिया
ऐसे ही एक सालाना जलसे में 1913 में अंग्रजों ने सेना के साथ उन्हें घेर लिया. गोविंद गुरु को तुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया. वहां तब लाखों भगत आ चुके थे. पुलिस ने कर्नल शटन की अगुवाई में फायरिंग शुरू कर दी. कम से कम 1500 आदिवासी मारे गए.

फांसी की सजा हुई फिर ये आजीवन कारावास में बदली
गोविंद गुरु के पैर में गोली लगी. उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. पहले फांसी की सजा हुई और फिर इसे बदलकर आजीवन कारावास में बदल दिया गया. अच्छे बर्ताव के कारण वह 1923 में जेल से मुक्त हो गए. बाहर आकर उन्होंने फिर लोक सेवा के तमाम काम जारी रखे. 30 अक्तूबर 1931 को गुजरात के कम्बोई गांव में उनका निधन हो गया. यहीं उनकी समाधि बनाई गई. जहां हर साल बड़े पैमाने पर लोग पहुंचते हैं.

Tags: Rajasthan news, Scheduled Tribe, Social Welfare

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