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बॉलीवुड सुपरस्टार की यह फिल्म भी हुई फ्लॉप. बॉक्स ऑफिस धड़ाम, लगा करोड़ों का चूना. हिंदी फिल्मों का भविष्य अंधकारमय, बॉयकाट… बॉयकाट… बॉयकाट….

बॉलीवुड की मौजूदा हालत बयां करती ये चंद पंक्तियां इतना तो बताती ही हैं कि यह समय हिंदी फिल्मों की शान में कसीदे पढ़ने का तो कतई नहीं है. एक हिंदी सिनेप्रेमी होने के नाते चाहें तो आप मनोरंजन की खुराक की खातिर ओटीटी पर शिफ्ट हो सकते हैं, जहां हिंदी-अंग्रेजी की फिल्मों और सीरीज के अलावा और भी बहुत कुछ है. वरना साउथ सिनेमा तो है ही, जिसकी आजकल चारों ओर धूम मची है. अपनी खराब हालत पर बॉलीवुड सिने बिरादरी जो चाहे दलील दे, पर वास्तविकता यही है कि न तो अच्छी फिल्में (ज्यादातर) बन रही हैं और न ही ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं कि बॉलीवुड ऐसे किसी मुद्दे पर अपनी कोई ठोस बात रख सके.

लेकिन क्या वाकई यह पहला मौका है जब कंटेंट को लेकर बॉलीवुड को कोसा जा रहा है. फिल्मों की खराब गुणवत्ता को लेकर क्या पहले कभी मीडिया ने फिल्मकारों पर हमले नहीं किए. क्या हम उन सुपरस्टार्स को भूल गए, जिन्होंने फ्लॉप फिल्मों के रिकॉर्ड बनाए और फिर ब्लॉकबस्टर फिल्मों से कमबैक भी किया. और बात केवल फिल्मों के न चलने की है, तो क्या बॉलीवुड पहली बार ऐसे संकट का सामना कर रहा है?

गलती किसकी, कमजोर कड़ी कौन

नहीं, नहीं. इसका जवाब इतना सीधा तो नहीं हो सकता कि किन्हीं दो-चार लोगों के नाम लिए जाएं और कह दें कि सारा दोष फिल्म सितारों, निर्देशकों और लेखकों का है जो आजकल अच्छी कहानियां ही नहीं लिख रहे हैं. क्योंकि अगर केवल कलाकारों को दोष देंगे तो लगभग फिल्में तो किसी की भी नहीं चल रही हैं. सारी गलती अगर निर्देशक की ही होती तो फिर लोग खराब कंटेंट की बात नहीं करते. और अगर अच्छे लेखन का सारा जिम्मा केवल लेखक पर ही है, तो फिर निर्माता की क्या जिम्मेदारी बनती है, जिसे हर हालत में अपने रिटर्न का भी ध्यान रखना है. फिर संगीतकार-गीतकार को आड़े हाथों क्यों न लिया जाए, जबकि हिंदी फिल्में तो जानी ही जाती हैं अपने मधुर संगीत के लिए. ऐसा भी तो नहीं है कि फिल्में पिट रही हैं और संगीत चकाचक चल रहा है. और जब आर्थिक दृष्टिकोण से बॉलीवुड बिजनेस की समीक्षा की जाए तो कोविड से पहले और बाद के हालातों में आए बदलाव पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए.

इस बीच अभिनेता अक्षय कुमार ने कुछ दिन पहले इस पूरी बहस को दो टूक में यह कहकर समेट दिया कि यह हम सबकी गलती है, मेरी गलती है. मौका था उनकी एक आने वाली फिल्म के ट्रेलर लॉन्च का, जहां उनसे पूछा गया था कि इन दिनों बॉलीवुड फिल्में सिनेमाघरों में अच्छा प्रदर्शन क्यों नहीं कर पा रही हैं. ये भी कि आजकल फिल्मों के बॉयकाट का एक ट्रेंड सा जो चल पड़ा है, उस पर उनकी क्या राय है. इंडस्ट्री के मौजूदा हालात पर ऐसे कई सारे सवाल थे, जिन पर अक्षय कुमार ने खुद में बदलाव की बात स्वीकारते हुए माना कि वह समझना चाहते हैं कि दर्शक क्या चाहते हैं.

तो आखिर अक्षय कुमार के इस बयान को कैसे देखा जाए? खासतौर पर उनका यह कहना कि इसके लिए कोई और नहीं मैं दोषी हूं, के बाद हमें उनसे आगे कैसी उम्मीद रखनी चाहिए.

बहरहाल, वह खुद में क्या बदलाव करने की सोच रहे हैं या दर्शकों की चाहत को वह कितना समझ पाएंगे इसमें लंबा वक्त लगेगा. लेकिन उनके जैसा जनता का चहेता स्टार, जिसकी साल में सबसे ज्यादा फिल्में आती हैं और चलती भी हैं, ने बीते तीस वर्षों में इंडस्ट्री की धूप-छांव तले सुपरहिट और फ्लॉप के कई अच्छे-बुरे दौर देखे हैं. इसलिए उनके जवाब को कम से कम एक स्वागतयोग्य कदम तो माना ही जा सकता है. हालांकि दर्शकों का एक वर्ग ऐसा भी हो सकता है, जिसका मानना हो कि अक्षय की हालिया फिल्में (बच्चन पांडे, सम्राट पृथ्वीराज, रक्षा बंधन) देखकर उनके पैसे डूब गए, इसलिए मुद्दे से पल्ला न झाड़कर और दूसरों पर दोष न मढ़कर उन्होंने ऐसा करके ठीक ही किया. तो बाकियों का क्या? क्या उन्हें भी ऐसा ही करना चाहिए? खासतौर पर वे जिनकी फिल्मों ने कंटेंट के मामले में सबसे ज्यादा निराश किया है या वे जिनकी फिल्में तमाम दावों के बावजूद बॉक्स ऑफिस पर लुढ़क गईं.

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जितने मुंह उतनी बातें

बॉलीवुड फिल्मों के खस्ताहाल और बॉक्स ऑफिस के आर्थिक विश्लेषण पर मीडिया में लंबे समय से काफी कुछ लिखा जा रहा है, जिसमें मोटे तौर फिल्मों के कंटेंट और सिनेमाघरों में दर्शकों की गैर-मौजूदगी को लेकर चिंताएं साफ दिखती हैं. अब ऐसा क्यों हो रहा है इसे लेकर जितने मुंह उतनी बातें. सबके अपने-अपने तर्क हैं. हालांकि जो एक मुख्य बात समझ में आती है वो यह कि इन दिनों दक्षिण भारतीय फिल्मों का कंटेंट उत्तर भारतीय या हिंदी पट्टी के दर्शकों को काफी आकर्षित कर रहा है. वहां की कुछ फिल्मों ने यहां खूब अच्छा बिजनेस किया है, जिसका खामियाजा हिंदी फिल्मों को भुगतना पड़ रहा है. इसके अलावा बड़ी फिल्मों की दुर्दशा उनके खराब कंटेंट के साथ-साथ भारी भरकम बजट के कारण भी हो रही है, जिससे रिकवरी में दिक्कतें आने लगी हैं. कलाकारों की मुंह मांगी फीस, केवल बड़ी फिल्मों को ज्यादा स्क्रीन्स मिलना फिर भले ही वह न चलें, नेपोटिज्म, भारतीय संस्कृति और इतिहास की अनदेखी, बात-बात में फिल्मों का बॉयकाट, बॉलीवुड को लेकर नकारात्मकता का प्रचार, ओटीटी का बढ़ता क्रेज जैसी चीजों पर भी विचार-विमर्श देखने को मिलता है.

यानी कोई एक ठोस कारण ऐसा नहीं मिलता, जिसकी वजह से मान लिया जाए अब बॉलीवुड बीते दिनों की बात होने जा रही है. हालांकि इधर, सिने बिरादरी के कुछ जाने-माने लोगों के मीडिया में आए बयानों से एक अलग तस्वीर उभरती है.

इस मुद्दे पर निर्देशक अनुराग कश्यप कहते है कि उन लोगों की फिल्में चल रही हैं, जो इंडस्ट्री की परवाह किए बगैर केवल अपनी शैली (चिर परिचित अंदाज वाली फिल्में) पर चल रहे हैं. शायद उनका इशारा संजय लीला भंसाली की गंगूबाई काठियावाड़ी और अनीज बज्मी की भूल भुलैया 2 से है. इन फिल्मों की शानदार सफलता से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह दर्शकों का दिल जीतने में भी कामयाब रही हैं.

अनुराग कश्यप आगे कहते हैं कि जो फिल्मकार आमतौर पर ऐसा नहीं करते, वे अपनी शैली बदलकर दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं. यहां कयास लगाया जा सकता है कि वह सम्राट पृथ्वीराज में अक्षय कुमार की बात कर रहे हों? तो वहीं ओटीटी पर ठीकरा फोड़ते हुए लाल सिंह चड्ढा की रिलीज से एक सप्ताह पहले आमिर खान कह रहे थे कि आजकल सिनेमाघरों में दर्शकों की उत्सुकता इसलिए भी कम हो गई है क्योंकि फिल्में रिलीज के तुरंत बाद ओटीटी पर आ जाती हैं. वह कहते हैं कि इंडस्ट्री में जो चलता हो, पर ओटीटी पर मुझे अपनी फिल्मों के लिए 6 महीने का अंतराल पसंद है.

हालांकि आमिर ने जो कारण गिनाए वह लाल सिंह चड्ढा की भारी असफलता से जरा मेल नहीं खाते हैं क्योंकि कारण जो रहे हों पर उनकी यह फिल्म तो सिनेमाघर में चलने वाली किसी फिल्म की न्यूनतम मियाद से पहले ही ढह गई. अब खबर है कि ओटीटी रिलीज को लेकर नेटफ्लिक्स की डील भी खटाई में पड़ती दिख रही है. उधर, इस साल की अब तक की सबसे बड़ी हिट दे चुके अनीज बज्मी फिल्मों की अच्छी गुणवत्ता की आवश्यकता पर जोर देते हैं, लेकिन साउथ बनाम बॉलीवुड की बात को खारिज कर देते हैं. वह कहते हैं कि यह कोई नया ट्रेंड नहीं है, हां ये जरूर है कि जो 5-10 साल पहले चलता था अब उसकी गुंजाइश नहीं है. मनोज बाजपेयी को लगता है कि यह बस एक बुरा दौर है. ज्यादा लो़ड न लें. उनके अनुसार हिंदी सिनेमा नहीं मरेगा, निश्चित रूप से वापस लौटेगा. यह वो भी मानते हैं कि थोड़े सुधार की जरूरत है. अब अंत में जरा सलमान खान की भी सुन लीजिए. उनका मानना है कि हिट फिल्म का कोई निश्चित फार्मूला नहीं होता. हम सभी बेहतर फिल्म बनाना चाहते हैं. कभी कोई फिल्म चलती है, तो कोई नहीं भी चलती.

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दिमाग के बजाए दिल की सुनने वाला दर्शक

खराब कंटेंट और बॉक्स ऑफिस की नाकामी को लेकर फिल्मकारों की अलग-अलग दलीलें भले ही किसी के गले उतरे या नहीं, लेकिन यह जरूर है कि वो बेचारा दर्शक ही है, जो पैसे देकर टिकट खिड़की में हाथ बढ़ाते वक्त दिमाग के बजाए अपने दिल की सुनता आया है. फिर भले ही इंटरवल में वो कुछ खाए-पिए ना या घर वापसी के पैसे ही क्यों न बचे हों उसके पास, पर सच यह है कि अपने पसंदीदा हीरो को देखने के लिए उसके यह छोटे-छोटे संघर्ष फिल्म बिरादरी के नोटिस में अब शायद नहीं आते. इसलिए अब इस नए दौर में जिम्मेदारी उस दर्शक की ही बनती है कि वह अपने लिए खालिस मनोरंजक फिल्मों की मांग करे, वो भी गारंटी के साथ. कंटेंट में नएपन की मांग का उसका अधिकार भला कौन छीन सकता है.

लेकिन इस भरोसे के साथ कि जब कभी भी कोई अच्छे कंटेंट की फिल्म सिनेमाघर में लगे तो वह उसे देखने जरूर जाएगा. बेशक, फिल्म कितने ही दूर के थिएटर में क्यों न लगी हो या उसे कम स्क्रीन्स ही क्यों न मिले हों. क्योंकि थिएटर में दर्शकों की गैर-मौजूदगी के चलते अच्छा कंटेंट भी व्यावसायिक फिल्मों के आगे घुटने टेक देता है और आत्मसर्मपण करने को मजबूर हो जाता है. ऐसा कई मौकों पर देखा गया है कि कम बजट की फिल्म को भले ही सीमित रिलीज मिली हो, लेकिन अगर फिल्म लोगों को पसंद आती है तो उसकी चर्चा होने लगती है और वितरक को स्क्रीन्स की संख्या बढ़ानी पड़ती है. ऐसी फिल्मों की सफलता से उस फिल्म की पूरी टीम को हौंसला मिलता है और वह फिर से मेहनत करते हैं, ताकि एक और अच्छी फिल्म बना सकें. बीते एक-डेढ़ दशक में छोटा पैकेट बड़ा धमाल, सरीखी सुर्खियां पाने वाली फिल्मों की एक लंबी फेहरिस्त है बॉलीवुड में. हालांकि सिने रसिया टाइप्स के लिए यह थोड़ा मुश्किल हो सकता है कि वह ऐसी किसी कवायद का हिस्सा बनें और बाकायदा खुद को एक खुले दिमाग वाले दर्शक के तौर पर तैयार कर सके.

चलें फ्लैशबैक में जरा

मसलन, जो फिल्म अच्छी हो केवल उसे ही देखा जाए और कमतर को साइड करो. इस ध्येय दृष्टि से हमारे देश में फिल्में देखने की रवायत रही तो नहीं है. बाकी कहीं और भी देखने को शायद ही मिलती हो. बहुत ज्यादा पीछे न जाएं तो अस्सी के दौर में भी लोग कुछ कुछ इसी तरह से थिएटरों से दूरी बनाने लगे थे. हालांकि तब और अब के हालातों में काफी अंतर है, लेकिन कुछ बातें समान लगती हैं। फार्मूला के उस दौर में एक तो बेहद खराब फिल्में आ रही थीं और दूसरा सिनेमाघरों का माहौल भी पहले जैसा नहीं रह गया था. बीड़ी-सिगरेट पीते मनचलों के सीट पर पैर पसारकर बैठने से किसी की भी हाथापाई शुरू हो ही जाती थी.

मारधाड़, खून-खराबा, चालू मसाले से लबरेज फिल्मों का वो दौर नब्बे के मध्य तक छाया रहा. एक एक्शन फिल्म हिट होती तो दर्ज़नभर वैसी ही बननी शुरू हो जाती थी. रोमांटिक, सामाजिक, घर-संसार, हॉरर कोई भी टॉपिक हो. बस हिट होने कि देर थी, लपकने वाले बैठे रहते थे. ए कहते हुए कि अब ये नहीं चलता, अब वो चलेगा.

हालांकि एक आम दर्शक तब भी सीटीमार हीरो के पीछे पैसे लुटाने में कंजूसी नहीं करता था. उसकी दीवानगी के लिए चार बढ़िया गाने, हीरो की फाइट और दमदार डायलाग, काफी थे. जैसी थी जो थी, उस दौर के दर्शक की मनोरंजक दुनिया यही थी. और शायद इसी दर्शक समूह के दम पर मिथुन चक्रवर्ती और गोविंदा जैसे ने उस दौर में सिरे से दर्जनों फ्लॉप फिल्में दीं और फिर शानदार कमबैक कर लंबी पारियां भी खेलीं।

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तमाम खामियों के बावजूद उस दौर में भी कला फिल्मों और कुछ नए पुराने निर्देशकों के दम पर अर्थपूर्ण एवं सुलझे हुए कंटेंट का संतुलन बना हुआ था. एक तरफ आखिरी मुजरा, आग का गोला, आदमखोर, हिसाब खून का जैसी फिल्में बेहिसाब आ रही थीं तो दूसरी तरफ आशा, अवतार, क्रांति, चश्मेबद्दूर, आक्रोश सरीखी फिल्में भी आ रही थीं.

फिर मिलेनियम के पहले दशक में खून-खराबे और बेकार की मारधाड़ की जगह रूमानी और पारिवारिक-सामाजिक कहानियां लेने लगीं और फिल्मों के बजट के साथ-साथ कैनवास भी फैलने लगा तो एक नए दर्शक वर्ग का जन्म हुआ, जिसे मल्टीप्लेक्स संस्कृति के लिए तैयार होना था. प्रवासी भारतीयों को ध्यान में रखकर फिल्में बनने लगीं. इंटरनेशनल अपील, बिग मार्किट, कॉर्पोरेट, ऑस्कर और वर्ल्ड ऑडियंस जैसे शब्द फिल्मकारों के मुंह चढ़ने लगे. सिनेमा टिकटों की कीमत दो से तीन डिजिट में तब्दील होने लगी, जिसने पहली कतार के दर्शक को लगभग खत्म सा कर दिया.

थोड़े समय बाद वह फिल्मकारों की नजरों से भी ओझल हो गया. शायद इसी दौरान सिनेमा की आदत, मजबूरी में बदलने लगी होगी. ऐसी मजबूरी कि दर्शक अब पहले से कहीं ज्यादा पैसे देकर खराब कंटेंट को भी 200 रूपए का पॉपकॉर्न खाते हुए खुशी खुशी हिट करवाने लगा.

धीरे-धीरे यह मजबूरी और बढ़ती गई. ऐसा न होता तो साजिद खान की हमशकल्स (2014), सबसे भद्दी फिल्म का तमगा पाकर भी अपनी लागत (करीब 64 करोड़ रुपए) से अधिक वसूल (लगभग 86 करोड़ रुपए) करने में कभी कामयाब न होती. इस कड़ी में हिम्मतवाला (2013), तीस मार खान (2012), जय हो (2014), दबंग 3 (2019), हाउसफुल 4 (2019), स्टूडेंट ऑफ दि ईयर 2 (2019) सहित अनेकों फिल्में हैं, जो दर्शाती हैं कि 500-1000 रुपए खर्च करके सिनेमा देखना एक फैशन है, एंटरटेनमेंट कि चाहत नहीं.

एक ऐसा फैशन जिसमे अच्छे कंटेंट की चाहत कम, टाइमपास ज्यादा था. फिर भले ही फिल्म कैसी भी हो. बस, हर हालत में देखनी है. यहाँ नया नवेला उभरता मध्य वर्ग सबसे अधिक बेचैन दिख रहा था और शायद अब भी वही है, जिसे अपने पैसे खराब होने का सबसे ज्यादा दुख है.

शायद खराब कंटेंट को ऐसी चीजों से ही बढ़ावा मिला. पर अब इस ट्रेंड में बदलाव की उम्मीद दिख रही है. क्योंकि कोविड के दौरान ओटीटी पर बिलकुल नए अंदाज का कंटेंट देखने से दर्शक में एक नई चेतना सी तो जागी है. सही, खराब, सटीक को लेकर उसकी समझ और मांग पहले जैसी नहीं रही है और इसी का असर थिएटरों में उसकी गैर मौजूदगी के रूप में दिख भी रहा है. पर इस बात को बहुत कम फिल्मकार समझ पा रहे हैं. हो सकता है कि किसी ठोस कारण के चक्कर में कुछ छोटे-छोटे महत्वपूर्ण कारणों को हम नजरअंदाज कर रहे हों. क्योंकि इस बीच कुछ अच्छा सिनेमा भी आया है. नई कहानियां और नई प्रतिभाएं असर दिखाने में सफल रही हैं. पर सारा जोर केवल बॉक्स ऑफिस की नाकामी पर केन्द्रित हो गया है या फिल्म सितारों की नकारात्मक छवि पर. या सोशल मीडिया के बॉयकाट अभियानों पर. इसलिए इस बुरे दौर में जो कुछ थोड़ा बहुत अच्छा है, उस पर कोई देखना ही नहीं चाह रहा है.

हालांकि यहां मनोज बाजपेयी कि बात कुछ समय के लिए राहत दे सकती है कि ये बस एक बुरा दौर है, ज्यादा लोड न लें.

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