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ममता त्रिपाठी

नई दिल्ली : उत्तर प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी सपा (समाजवादी पार्टी) चुनाव के पहले जिस भी सियासी दल से गठबंधन करती है वो चुनाव के बाद बिखरने क्यूं लगता है? अखिलेश यादव के नेतृत्व में पार्टी ने लगातार तीसरा चुनाव हारा है. जिसके बाद उनकी ‘नेतृत्व क्षमता’ को लेकर भी सियासी गलियारों में चर्चा आम हो गई है. 2017 में कांग्रेस पार्टी के साथ विधानसभा चुनाव के वक्त समाजवादी पार्टी ने गठबंधन किया था. मगर चुनाव के नतीजों के बाद ‘दो लड़कों की जोड़ी’ चल नहीं पाई और कांग्रेस ने अपना हाथ छुड़ा लिया.

2019 के लोकसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी ने पुरानी रंजिश भूल कर समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया. पूरे चुनाव ‘बुआ-बबुआ’ ने घूम घूमकर वोट मांगा. मगर नतीजों के बाद मायावती ने सपा पर आरोप लगाते हुए गठबंधन को भूल करार दिया और गठबंधन तोड़ दिया.

महागठबंधन में आरोप-प्रत्यारोप शुरू
2022 के विधानसभा चुनावों में एक बार फिर नए जोश के साथ ‘नई सपा है, नई हवा है’ के नारे के साथ अखिलेश यादव ने चुनाव से पहले महागठबंधन बनाया. मगर नतीजों के बाद से ही आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ और गठबंधन में दरारें पड़नी शुरू हो गईं, बिखराव साफ देखने को मिल रहा है. केशव देव मौर्य, संजय चौहान के बाद ओम प्रकाश राजभर के भी तेवर कुछ ऐसे ही लग रहे हैं. ओम प्रकाश राजभर ने 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर जिस तरह से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कामों की तारीफ करना शुरू कर दी है उससे ये साफ जाहिर हो रहा है कि राजभर ने अपनी सियासी दिशा बदल ली है.

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अखिलेश-राजभर के बीच तनातनी
ओम प्रकाश राजभर ने अखिलेश यादव को एसी कमरों से बाहर निकल कर जनता के बीच काम करने की सलाह दी और 2012 के विधानसभा चुनाव की जीत को नेताजी मुलायम सिंह यादव की जीत बताया तो ये बातें सपा प्रमुख को नागवार गुजरीं और उन्होंने राजभर पर ही आरोप लगा दिया कि वो कहीं और से ऑपरेट हो रहे हैं. जिसके जवाब में राजभर ने भी अखिलेश को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि जब तक अखिलेश जी के साथ थे तब कहां से ऑपरेट हो रहे थे? आजमगढ़ के चुनाव में सुभासपा के सारे नेता लगे थे मगर अखिलेश जी नहीं गए प्रचार करने क्यूं? इन्हीं की तो सीट थी! इन सब बातों से साफ जाहिर होता है कि सपा गठबंधन में दरारें आ चुकी हैं और सभी दल अपनी सियासत के हिसाब से शतरंज की चालें चल रहे हैं.

अहंकारी हो गए हैं अखिलेश!
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक सीपी राय का मानना है कि अखिलेश अहंकारी हो गए हैं और राजनीतिक परिपक्वता की भी कमी है उनमें. उनकी कोई भी रणनीति चुनाव में सफल नहीं हो रही है. मुलायम सिंह जमीन से जुड़े नेता थे मगर अखिलेश जमीन की राजनीति से कोसों दूर है. उनके आस पास के लोग जो उनकी आंख, कान हैं वो उन्हें सच्चाई से दूर रखते हैं जिसका खामियाजा है आजमगढ़ और रामपुर की हार. अब तो अखिलेश ने खुद ही मान लिया कि उनको जानकारी दी गई थी कि उपचुनाव जीत रहे हैं इसलिए वो प्रचार करने नहीं गए. ना जाने का फैसला और उस पर ये बयान लड़कपन वाला है.

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क्यों होने लगीं गांठें ढीली
विधानसभा चुनावों के नतीजों के बाद विधान परिषद और राज्यसभा के चुनाव हुए जिसमें सपा गठबंधन के घटक दलों को उम्मीद थी कि समाजवादी पार्टी उनके साथ को बनाए रखने के लिए समायोजित करेगी मगर अखिलेश ने ऐसा नहीं किया जिसके बाद से ही गठबंधन की गांठें ढीली पड़नी शुरू हो गई थीं.

यूपी की सियासत पर पैनी निगाह रखने वाले हेमंत तिवारी का कहना है कि भाजपा हर चुनाव के बाद दोगुने जोश से अगली लड़ाई की तैयारी कर रही है तो वहीं सपा के अंदर खींचतान मची है. चुनाव नतीजों के साढ़े तीन महीने के बाद अखिलेश यादव ने पार्टी की सभी फ्रंटल आर्गनाइजेशन को भंग किया जिससे पता चलता है कि वो राजनीति को लेकर कितने संजीदा हैं. अखिलेश को अपनी सियासत करने के तौर तरीके बदलने होंगे, उनका मुकाबला भाजपा से है जो एक चुनाव के बाद दूसरे चुनाव में जुट जाती है वो भी पूरी रिसर्च और जबरदस्त रणनीति के साथ.

Tags: Akhilesh yadav, उत्तर प्रदेश

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