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हाइलाइट्स

अहमदाबाद के 19 साल के किशोर के हौसले की कहानी
बोन मैरो ट्रांसप्‍लांटेशन के बाद मेडिकल लाइन में जाने का ख्‍याल आया
NEET पास करने के बाद MBBS में दाखिला लेने की तैयारी में हैं उर्विश भवसर

नई दिल्‍ली. कवि सोहनलाल द्विवेदी की कविता ‘लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती’ आपने कई बार पढ़ी और सुनी होगी. कुछ ऐसी ही कहानी अहमदाबाद के किशोर उर्विश भवसर की है. जब वह महज 3 महीने के थे तो उनके थैलेसीमिया पीड़ित होने का पता चला. जब उर्विश 6 महीने के हुए तो डॉक्‍टरों ने बताया कि वह ल्‍यूकेमिया यानी ब्‍लड कैंसर से भी ग्रसित हैं. उनके साथ यह सबकुछ उम्र के उस पड़ाव पर हो रहा था, जब उन्‍हें इसकी कोई खबर भी नहीं थी. दस साल की उम्र तक उर्विश का नियमित तौर पर अस्‍पताल आना-जाना लगा रहा. इस वजह से उन्‍हें अनेकों बार स्‍कूल से छुट्टियां लेनी पड़ीं. इसके बावजूद उन्‍होंने हार नहीं मानी. उनके इसी हौसले का नतीजा है कि उन्‍होंने NEET (National Eligibility cum Entrance Test) अच्‍छे अंकों से पास की. उर्विश भवसर ने NEET में 675 अंक लाकर बीजे मेडिकल कॉलेज के MBBS कोर्स में दाखिला लिया है. अब उनका एक ही सपना है- मरीजों के चेहरों पर मुस्‍कुराहट लाना.

उर्विश बताते हैं कि उनकी एक ही चाहत है. वह चाहते हैं कि वह उन मरीजों के दुख-दर्द को दूर कर सकें जिससे वह बचपन में गुजरे थे. मणिनगर निवासी उर्विश भवसर को महज 7 साल की उम्र में बोन मैरो ट्रांसप्‍लांटेशन से गुजरना पड़ा था. उनकी बहन ने उन्‍हें बोन मैरो दिया था. आपको यह जानकार आश्‍चर्य होगा कि उस वक्‍त उर्विश की बहन की उम्र महज 2.5 वर्ष थी. उर्विश बताते हैं कि उन्‍हें जितने मार्क्‍स मिले हैं, इससे उम्‍मीद है कि उन्‍हें अहमदाबाद में स्थित बीजे मेडिकल कॉलेज में दाखिला मिल जाएगा. वह बताते हैं कि जब उनका बोन मैरो ट्रांसप्‍लांटेशन हुआ था तो उन्‍हें एक साल के लिए आइसोलेशन में रहना पड़ा था, उसी वक्‍त मैंने मेडिकल क्षेत्र में जाने का फैसला किया था. उर्विश ने बताया कि स्‍वास्‍थ्‍य की वजह से उन्‍हें अक्‍सर स्‍कूल छोड़ना पड़ता था.

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बचपन से ही मेधावी रहे उर्विश
उर्विश भवसर तमाम तरह की कठिनाइयों के बावजूद पढ़ाई-लिखाई में तेज थे. 10वीं की परीक्षा उन्‍होंने 89 तो 12वीं 88 फीसद अंकों के साथ पास किया था. वह चार भाई-बहनों में तीसरे नंबर पर हैं. ‘टाइम्‍स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, उनकी मां सुनंदा बताती हैं कि उसका पहला कुछ साल भय के साये में बीता. उर्विश को नियमित अंतराल पर खून चढ़ाया जाता था. कैंसर का पता चलने पर उन्‍हें 2 वर्षों तक कीमोथेरेपी के दौर से गुजरना पड़ा था.

अब खुश हैं उर्विश
उर्विश बताते हैं कि बोन मैरो ट्रांसप्‍लांटेशन के बाद वह अच्‍छा फील कर रहे हैं. अब वह क्रिकेट और बैडमिंटन भी खेलते हैं. वह बताते हैं कि बोन मैरो देने वाली उनकी बहन ऋचा फिलहाल 10वीं में पढ़ रही है. उर्विश उनकी मदद करना चाहते हैं, लेकिन वह खुद एक मेधावी छात्रा हैं. बता दें कि उर्विश के पिता भारतीय रेलवे में कार्यरत हैं, जबकि उनकी मां गृहणी हैं.

Tags: National News, NEET

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