दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, ये फरवरी 1930 के बाद वाली दहाई के शुरुआती सालों के आस-पास का वाक़ि’आ है. उस वक़्त तक (साल 1931 में) कलकत्ते में फिल्मकार बीरेंद्रनाथ सरकार (बीएन सरकार) ने एक फिल्म कंपनी बना ली थी. नाम था, ‘न्यू थिएटर्स’. यह हिन्दुस्तानी सिनेमा की शुरुआती फिल्म कंपनियों में से एक हुई है. इसके बैनर तले डायरेक्टर नितिन बोस एक बांग्ला फिल्म बना रहे थे. उसे उन्होंने नाम दिया ‘भाग्य चक्र’. ये साल 1934 के आस-पास की बात होगी शायद. क्योंकि 1935 में तो यह फिल्म बांग्ला ज़बान के साथ-साथ हिन्दी में भी ‘धूप-छांव’ के नाम से रिलीज़ हो गई थी. तो, नितिन बोस स्टूडियो जाते वक़्त अपने दोस्त और गायक-संगीतकार पंकज मल्लिक को उनके घर से अपने साथ ले जाया करते थे. यह क़रीब-क़रीब रोज़ का नियम था उनका. ऐसा पंकज मल्लिक ने ख़ुद अपनी आत्मकथा में लिखा है.
तो जनाब, एक बार जब नितिन बोस साहब कार से पंकज मल्लिक को लेने उनके घर पहुंचे तो उन्होंने रोज़ की तरह नीचे से हॉर्न बजाया. एक बार, दो बार, तीन बार. लेकिन पंकज हैं कि बाहर ही न निकलें. मगर आवाज़ सुनकर खिड़की से उनके पिताजी झांके. उन्होंने नितिन को इशारा किया कि वे पंकज को भेजते हैं. इसके बाद पिताजी उस कमरे में गए, जहां पंकज आंखें बंद किए आराम-कुर्सी पर बैठे हुए कुछ सुन रहे थे. पिताजी ने उन्हें झिंझोड़ा और बताया कि ‘नीचे नितिन इंतिज़ार कर रहे हैं. कब से हॉर्न पे हॉर्न बजा रहे हैं’. इतना सुनते ही पंकज भागे-भागे नीचे पहुंचे और नितिन से बोले, ‘माफ़ कराना भाई, मैं कहीं खोया हुआ था आज’. ‘अरे, ऐसा क्या हुआ, जो तुम्हें इतनी तेज़ हॉर्न भी सुनाई न दिया’. ‘कुछ नहीं, वो मैं अपने पसंदीदा अंग्रेजी गाने के साथ ख़ुद भी गा रहा था. इसलिए कुछ सुनाई नहीं दिया’.
पंकज का ज़वाब सुनना था कि नितिन साहब के दिमाग़ में एक ख़्याज कौंध गया. ख़्याल यूं था कि अगर पंकज अपने पसंदीदा गाने को सुनते हुए उसके साथ-साथ गा सकते हैं तो यही तकनीक फिल्मों में क्यों नहीं आजमाई जा सकती. यानी पहले से किसी अच्छे गवैये की आवाज़ में गाना रिकॉर्ड करा लिया जाए. फिर फिल्म में हीरो-हीरोइन से होंठ हिलवाते हुए उसे उन पर फिल्मा लिया जाए. यहां ग़ौर करें जनाब, कि अब तक फिल्मों में अदाकार-अदाकाराएं अपने गाने ख़ुद ही गाया करते थे. और कैमरे के सामने शूटिंग के साथ-साथ ही गाना-बजाना होता था. यह सब बड़ा मुश्किल होता था. साथ ही, फिल्म बनाने वालों को यह भी ध्यान रखना होता था कि बतौर हीरो-हीरोइन जिसे भी लिया जाए, उसे अदाकारी के साथ ठीक-ठाक तरीके से गाना भी आता हो. सो, इस तरह के फ़नकार ढूंढने में भी दिक़्क़त.
लिहाज़ा, नितिन बोस ने इस नए तजरबे से जुड़े ख़्याल के बारे में सबसे पहले तो पंकज जी से ही मशवरा किया. क्योंकि आते-जाते उनके साथ सलाह-मशवरा वह रोज़ ही करते थे. फिर स्टूडियो पहुंचे तो वहां अपनी फिल्म के मूसीक़ार (संगीतकार) से बात की इस बारे में. ख़्याल उन्हें भी अच्छा लगा क्योंकि फिल्म की शूटिंग के साथ गाने-बजाने का सुर, लय, ताल मिलाने में सबसे ज़्यादा मुश्किल तो उन्हीं जैसे लोगों को हुआ करती थी. साथ ही, अगर किसी अदाकार या अदाकारा को गाना नहीं आता हो तो उसे हफ़्तों, महीनों तक पहले गायकी भी सिखानी पड़ती थी. वह परेशानी अलग. लिहाज़ा, नितिन बोस के इस ख़्याल में उन्हें ऐसी मुश्किलात का हल नज़र आ रहा था. लिहाज़ा, उन्होंने भी देर न की फिर. तजुर्बा-कारी हुई और केसी डे यानी कृष्ण चंद्र डे से फिल्म के लिए गाना गवाकर रिकॉर्ड कराया गया.
ये गाना था, ‘मैं ख़ुश होना चाहूं, खुश हो न सकूं’. इसमें केसी डे के साथ पारुल घोष, हरिमति दुआ और सुप्रभा सरकार ने भी आवाज़ें दी थीं. बाद में, इन्हीं लोगों पर यह गाना फिल्माया भी गया. क्योंकि ये सब अच्छे अदाकार, अदाकाराएं तो पहले से ही थे. लेकिन इस बार इन लोगों ने पहली मर्तबा शूटिंग के दौरान अपना गाना नहीं गाया था. बल्कि, पहले से रिकॉर्ड गाने पर होंठ हिलाए थे. चेहरे पर उसी के मुताबिक जज़्बातों को ज़ाहिर किया था. आसानी इसमें उन्हें भी हुई थी. यानी अब यहां से परदे के पीछे वाले गाने-बजाने पर अदाकारी दिखाने का सिलसिला शुरू हुआ था. और ये शुरुआत को मुमकिन बनाने वाले नितिन बोस के उस मूसीक़ार का नाम जानते हैं क्या था? आरसी बोराल. रायचंद बोराल पूरा नाम है इनका. आज, 19 अक्टूबर को इनका जन्मदिन भी होता है. साल 1903 में पैदा हुए थे.
इन बोराल साहब ने हिन्दुस्तानी फिल्मों के गीत-संगीत की दुनिया में कैसी हैसियत पाई, इसका अंदाज़ा सिर्फ़ इसी से लगा सकते हैं कि इन्हें ‘फिल्मी गीत-संगीत का जनक’ कहा गया है. बोराल साहब के कई बरसों बाद फिल्मों के एक और बड़े मूसीक़ार हुए हैं, अनिल बिस्वास. उन्होंने बोराल साहब को यह तमगा दिया था. और ग़लत नहीं थे बिस्वास साहब. क्योंकि बोराल साहब की तजुर्बा-कारी फिर प्ले-बैक सिंगिंग की शुरुआत करा देने तक ही नहीं ठहरी फिर. उन्होंने और भी तजरबे किए. मसलन- उर्दू ग़ज़ल को फिल्मी नग़्मे के तौर पर इस्तेमाल करने का तजरबा. संगीत के साज़ों से साउंड इफैक्ट देने का तजरबा. बाद में इसी से आगे चलकर बैकग्राउंड म्यूज़िक का सिलसिला भी बना, जो सुनाई देता है. इसके साथ गाने, बजाने वाले हुनरमंदों को पहचान कर उन्हें आगे भी बढ़ाया बोराल साहब ने.
कई नाम लिए जाते हैं फिल्मी दुनिया में. जैसे- केएल सहगल साहब, जिनकी नकल कर-कर के मुकेश और किशोर कुमार जैसे गायकों ने पहचान बनाई. बताते हैं, साल 1930 में एक और बड़े मूसीक़ार हरिश्चंद्र बाली ने कुंदनलाल सहगल साहब की बोराल साहब से पहचान कराई थी. ऐसे ही कानन देवी, जो मशहूर गायिका हुईं अपने ज़माने की. कहते हैं, उन्हें भी बोराल साहब ने आगे बढ़ाया. फिर, ‘मल्लिका-ए-ग़ज़ल’ बेगम अख़्तर. बताते हैं उन्होंने भी कुछ वक़्त बोराल साहब से गाने-बजाने की ता’लीम ली थी. बोराल साहब की सरपरस्ती में सीखते-समझते हुए फिल्मी गीत-संगीत की दुनिया में पैर जमाने वालों में ग़ुलाम मोहम्मद, नौशाद और मास्टर निसार के नाम भी लिए जाते हैं. मास्टर निसार अदाकार के साथ गायक भी थे. जबकि, ग़ुलाम मोहम्मद और नौशाद ने मूसीक़ार की हैसियत से पहचान क़ायम की.
और बोराल साहब ख़ुद भी. संगीत की ता’लीम उनकी भी बख़ूबी हुई थी. बंगाली खानदान से त’अल्लुक़ था उनका. और बंगाल में तो वैसे भी गीत-संगीत का माहौल खूब रहा है हमेशा से. तो, इनका खानदान भी पीछे कैसे रह जाता भला. सो, बताते हैं कि इनके वालिद साहब लाल चंद बोराल ख़ुद भी ध्रुपद गायकी के बड़े गवैये हुआ करते थे. धनी-मानी आदमी थे, तो बड़े-बड़े गाने-बजाने वालों को घर बुलवाकर वे अपने बेटों को गीत-संगीत की ता’लीम दिलवाया करते थे. तीन बेटे थे उनके. राय चंद उनमें सबसे छोटे, जिनकी ता’लीम हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के रामपुर-सहसवान घराने के गवैये उस्ताद मुस्ताक़ हुसैन खान से हुई. साथ ही बंगश घराने के सरोद वादक उस्ताद हाफ़िज़ अली खान और फर्रुखाबाद घराने के तबला वादक उस्ताद मसीत खान से भी उन्होंने बा-क़ायदा संगीत की ता’लीम ली थी.
इस तरह तैयार हुए आरसी बोराल साहब जब फिल्मों में मूसीक़ारी करने लगे तो कहते हैं, उन्होंने कम वक़्त में ही फिल्म संगीत में बंगाल की छाप को बड़े क़रीने से सजा दिया था. और इस सबके बाद कोई उनके संगीत की झलकियों को ज़ेहन में लाना चाहे तो वह भी हैं. आज-कल तकनीक का ज़माना है. यू-ट्यूब पर बोराल साहब का नाम डालिए. चुटकी बजाते ही तमाम गाने खुल जाएंगे. मसलन- ‘तेरी गठरी में लागा चोर मुसाफ़िर जाग जरा’, या ‘एक बंगला बने न्यारा’, या फिर वह जिसे जगजीत सिंह की आवाज़ में सुन-सुनकर लोग ग़म हल्के किया करते थे, ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए’. इसका संगीत बोराल साहब ने तैयार किया था पहले-पहल, हिन्दुस्तानी संगीत की रागिनी ‘भैरवी’ में. ‘भैरवी’, जो सदा-सुहागन कही जाती है. बोराल साहब का नाम और काम भी तो फिल्म-संगीत की दुनिया में ऐसा ही है.
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FIRST PUBLISHED : October 19, 2022, 07:47 IST
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