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दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…

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जनाब, ‘सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए’ वाले अंदाज़ में परेशान न हों. थोड़ा सब्र करें. धीरे-धीरे  मसला पूरा खुलता जाएगा. वैसे दास्तान चूंकि ‘जॉनी वॉकर’ की है, तो थोड़ा-बहुत ‘सर चकराना’ लाज़िम भी है. भरोसा न हो तो उनसे पूछ लीजिए, जो इस नाम के फेर में कभी, किसी न किसी तौर पर पड़े हैं. ख़ैर, तो जनाब, एक दौर में, ख़ास तौर पर हिन्दुस्तान में, ‘जॉनी वॉकर नाम के ब्रांड’ एक नहीं, बल्कि दो होते थे. हालांकि, उनके राब्ते में आने वालों पर नशा उनका एक जैसा ही होता था. इनमें एक जो पहला ब्रांड है, वह स्कॉटलैंड की एक ख़ास क़िस्म की शराब (व्हिस्की) का हुआ. जो पीने वाले हैं, वे जानते ही होंगे. मगर वे शायद ये न जानते हों कि स्कॉटलैंड के जिन कारोबारी ने इस मशहूर शराब का धंधा शुरू किया, उनका नाम जॉनी नहीं बल्कि ‘जॉन वॉकर’ होता था. ‘जॉनी वॉकर’ कंपनी की अपनी वेबसाइट है, उस पर ऐसा दर्ज़ है.

साल 1820 से इस ब्रांड की कहानी शुरू होती है. तब जॉन वॉकर साहब ने स्कॉटलैंड के किलमरनॉक क़स्बे में अपनी किराने की दुकान खोली थी. वहीं वे ख़ास क़िस्म से तैयार की गई शराब भी बेचा करते थे. उस वक्त उन्होंने इस शराब को कोई ख़ास नाम नहीं दिया था. लेकिन इस शराब की मशहूरित दिनों-दिन ऐसी बढ़ती जाती थी कि उनके बेटे अलेक्जेंडर ने इस कारोबार को आगे ले जाने में बड़ी दिलचस्पी दिखाई. उन्होंने पहली बार 1867 में अपनी शराब को ख़ास नाम दिया, ‘ओल्ड हाईलैंड व्हिस्की’. फिर अलेक्जेंडर साहब के बाद उनके दो बेटों- अलेक्जे़ंडर-2 और जॉर्ज ने तो इस ब्रांड की पूरी कहानी ही बदल दी. ये बात है 1909 की, जब इन दोनों ने अलग-अलग तरीके से तैयार की गईं अपनी शराबों का नाम, अपने दादाजी के नाम से जोड़कर ‘जॉनी वॉकर’ रखा. ‘ओल्ड हाईलैंड’ नाम की शराब तीन तरह की थीं. पांच, नौ और 12 साल पुरानी.

इनमें से पहली, जो पांच साल पुरानी थी, उसे नाम दिया ‘जॉनी वॉकर व्हाइट लेबल’, दूसरी को ‘जॉनी वॉकर रेड लेबल’ और तीसरी को ‘जॉनी वॉकर ब्लैक लेबल’. और इसके बाद तो इन शराबों का सुरूर पूरी दुनिया पर ऐसा चढ़ा, ऐसा चढ़ा कि अब तक उतरा नहीं है. कंपनी की मानें तो 1920 तक दुनिया के क़रीब 120 मुल्कों में ‘जॉनी वॉकर’ शराब पहुंचने लगी थी. जबकि इसके क़द्र-दानों की तादाद करोड़ों में हो चुकी थी. ज़ाहिर है, इनमें हिन्दुस्तान भी था ही. यहां भी तमाम ख़ास-ओ-आम ‘जॉनी वॉकर’ के क़द्र-दानों में शुमार होते थे. इन्हीं में एक थे, हिन्दुस्तान की फिल्मी दुनिया के मशहूर प्रोड्यूसर, डायरेक्टर गुरुदत्त साहब. उन्हें ये शराब कितनी पसंद थी, इसका अंदाज़ा इसी से लगा सकते हैं कि साल 1950-51 के आस-पास कभी, जब उनकी फिल्म ‘बाज़ी’ के सैट पर एक मुकम्मल ‘बेवड़े-से दिखने वाले शख़्स’ काे लाया गया, तो उसकी आमद यूं असर-ख़ेज़ हुई कि उन्होंने उसका नाम ही ‘जॉनी वॉकर’ रख दिया. इस तरह दूसरे ‘जॉनी वॉकर’ ने पैदाइश पाई.

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Johnny Walker

बताते हैं, उस वक़्त बलराज साहनी साहब इन ‘जॉनी वॉकर’ को गुरुदत्त जी के पास लेकर आए थे. ये जो ‘बाज़ी’ फिल्म बन रही थी न उस वक़्त, इसे मशहूर अदाकार देवानंद साहब बना रहे थे. इसका डायरेक्शन गुरुदत्त साहब के हाथ में था. और कहानी, पटकथा वग़ैरा गुरुदत्त जी और बलराज साहनी साहब मिलकर लिख रहे थे. फिल्म की कहानी ज़ुर्म की दुनिया को ध्यान में रखकर लिखी गई थी. लिहाज़ा देखने वालों को हल्का-फुल्क़ा और मन को गुदगुदाने वाला मनोरंजन भी बीच-बीच में मिलता रहे, इसलिए दोनों ने कहानी में एक किरदार जोड़ा, जो हंसोड़ और बेवड़े क़िस्म का होता है. इसके बाद तलाश शुरू हुई इस किरदार के लिए अदाकार की. साहनी साहब और गुरुदत्त जी ख़ुद आला दर्ज़े के अदाकार. अदाकारी की बारीक़ियां ख़ूब जानते थे. ऐसे में, उनकी कसौटी पर कोई मौज़ूदा अदाकार ‘इस हंसोड़ किरदार’ के सांचे में बैठ ही नहीं पाया.

तभी एक रोज़ साहनी साहब जब ‘बेस्ट’ (बृहन्मुंबई इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट) की बस से कहीं जा रहे थे तो उनकी नज़र उसके कंडक्टर पर जा ठहरी. अब इधर बीच में याद करते चलिए कि उस ज़माने में ‘बड़े लोग’ अपने क़द से ज़्यादा हुआ करते थे, रुतबे से कुछ कम. इसीलिए, तो सिटी बसों में सफ़र करने पर भी उन्हें अपनी शान के ख़िलाफ़ न लगता था. बहर-हाल. ताे साहनी साहब ने देखा कि कंडक्टर बड़े दिलचस्प और मज़ाक़िया अंदाज़ में सवारियों के टिकट काट रहा था. इतना ही नहीं, जब कोई बस स्टॉप आता है तो वह उसका नाम यूं पुकारता कि सवारियों की हंसी छूट जाती है. उसे देखकर साहनी साहब को लगा कि ये शख़्स शायद कहानी के उस ‘हंसोड़-बेवड़े’ किरदार के सांचे में फिट हो जाए. मगर आख़िरी फ़ैसला तो गुरुदत्त साहब को करना था, जो पिक्चर के मामले में हर चीज़ को सौ फ़ीसद की कसौटी पर कसा करते थे.

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लिहाज़ा, साहनी साहब ने बस से उतरने से पहले उस कंडक्टर को अपना त’अर्रुफ़ दिया, पता बताया और कहा, ‘ड्यूटी से फ़ारिग होने के बाद इस पते पर मिलने आना. और इस तरह आना, जैसे तुमने ख़ूब शराब पी रखी हो. वैसे, नाम क्या है तुम्हारा?’ ‘नाम…नाम तो मां-बाप ने बदरुद्दीन रखा है. बदरुद्दीन ज़मालुद्दीन क़ाज़ी. और साहब, मुसलमान होने के नाते शराब को तो मैं हाथ भी नहीं लगाता’. ‘अच्छा! कोई बात नहीं. कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम शराब पीते हो या नहीं. पर जहां तुम्हें आना है, वहां पहुंचना शराबी की तरह ही है. समझे?’ ‘जी समझ गया’. और जनाब, ‘बदरुद्दीन कंडक्टर’ तय वक़्त पर शराबी तो क्या, ‘बेवडे़’ की तरह जा पहुंचे वहां, जहां साहनी साहब ने आने को कहा था. वहां इनके पहुंचते ही तमाशा खड़ा हो गया. गुरुदत्त साहब की सख़्त-मिज़ाजी से सब वाक़िफ़ थे. तब वे वहां मौज़ूद भी थे. सो, सब सकते में आ गए. अब क्या होगा? पर ये क्या? गुरुदत्त जी तो साहनी साहब के साथ बैठे ‘बदरुद्दीन कंडक्टर’ की हरक़तों पर हंस रहे थे!

Johnny Walker

बहरहाल, कुछ देर मामला यूं ही चला और फिर लोगों को माज़रा समझ आया कि ये  ‘बदरुद्दीन कंडक्टर’ हैं, जो ‘बाज़ी’ पिक्चर का हिस्सा बन चुके हैं. जॉनी वॉकर के नए नाम से, नई पहचान लेकर. और इनके बारे में साहनी साहब ने गुरुदत्त जी को पहले ही बता रखा था. तो इस तरह, मध्य प्रदेश के इंदौर में साल 1920 की 11 नवंबर को पैदा हुए बदरुद्दीन साहब बंबई पहुंचकर 1951 का साल आते-आते ‘जॉनी वॉकर’ में तब्दील हो गए. और फिर इस नई पहचान के साथ उन्होंने इसी नाम की शराब की तरह अपनी ‘हंसोड़ी-नशेड़ी अदाकारी’ का नशा यूं बिखेरा कि एक वक़्त पर फिल्मों के डिस्ट्रीब्यूटर मांग तक करने लगे थे कि जॉनी वॉकर का सीन या गाना पिक्चर में ज़रूर हो. क्योंकि वह देखने वालों को पिक्चर के साथ बांधे रखने की गारंटी होता है. और देखने वालों पर उनकी अदाकारी का असर कैसा हुआ? ज़वाब उनकी बेटी के ज़रिए लेते हैं.

जॉनी वॉकर साहब की छह औलादें हुईं. इनमें एक तसनीम खान. अमेरिका में रहती हैं. उन्होंने फिल्मफेयर मैगज़ीन के साथ इंटरव्यू में कुछ वाक़ि’अे बताए हैं, ‘हम लोग एक बार अब्बा की ‘छू मंतर’ (1956) फिल्म देखने गए थे, सिनेमा-हॉल में. इस पिक्चर में अब्बा पर एक गाना फिल्माया गया है- गरीब जान के हमकाे न तुम भुला देना, तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना. मोहम्मद रफ़ी अंकल ने गाया है. अब्बा के लिए फिल्मों में, ख़ास तौर पर वे ही गाना गाते थे. तो जैसे ही इस गाने के साथ अब्बा पर्दे पर आए, लोग इतनी ज़ोर-ज़ोर से तालियां बजाने लगे कि बहुत देर तक हमें कुछ और सुनाई ही नहीं दिया फिर. ऐसे ही, ‘नया दौर’ फिल्म का प्रीमियर था एक बार. इसमें जब शुरू के एकाध घंटे अब्बा की एंट्री नहीं हुई तो लोग बेचैन होने लगे. वे चिल्लाने कि जॉनी वॉकर का सीन दिखाइए. बड़ी मुश्क़िल से उन्हें समझाया गया. इसमें अब्बा इंटरवल के बाद दिखे है’.

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‘इस ‘नया दौर’ पिक्चर में भी उनका एक गाना है- मैं बंबई का बाबू नाम मेरा अनजाना. और जैसे ही यह गाना आया लोगों की दीवानगी फिर वैसी ही दिखी, जैसी हमेशा दिखती थी. ऐसा था उनका जलवा. इसके बावज़ूद उन्होंने अपनी इच्छा से फिल्मों में काम करना कम कर दिया धीरे-धीरे. वे अक्सर कहा करते थे- माउंट एवरेस्ट पे चढ़ लिया. अब उतरना भी है न. तभी तो और लोग वहां पहुंच पाएंगे’. वैसे, जॉनी वॉकर साहब ने भी एक बार फिल्मों से धीरे-धीरे दूर होने की एक वज़ह बताई थी, ‘हमारे दौर में साफ़-सुथरी कॉमेडी होती थी. हमें ध्यान रहता था कि लोग अपने बीवी-बच्चों के साथ सिनेमा हॉल में आते हैं. हमारे लिए पहले कहानी होती थी. फिर किरदार, फिर अदाकार. लेकिन गुजरते वक़्त के साथ इसका ठीक उल्टा हो गया. पहले अदाकार, फिर किरदार, अंत में कहानी. इसके बीच में कहीं कॉमेडियन को फिट कर दिया जाता है’.

जॉनी वॉकर साहब के मुताबिक, ‘इस बदलाव के साथ मैंने ख़ुद को फिट नहीं पाया, तो फिल्मों से दूर होना बेहतर समझा’. अलबत्ता, तसनीम और दूसरे घरवाले जब उनसे इसकी वज़ह पूछते तो वे कहा करते थे, ‘अरे, सब तो कमा लिया. घर है, गाड़ी है, बच्चे हैं. और क्या चाहिए’. हालांकि तसनीम की मानें तो उनके ‘अब्बा ने कॉमेडी का साथ आख़िरी वक़्त तक नहीं छोड़ा. जब बीमारी की वज़ह से उन्हें अस्पताल ले जाया गया तो उन्होंने मशीनों पर वक़्त गुज़ारने से साफ़ इंकार कर दिया था. कहते थे- मुझे मशीनों पर पड़े-पड़े 10 साल नहीं जीना. घर ले चलो. घरवालों के बीच एक साल ही रह लूं, तो बहुत है. तो हम लोग उन्हें घर ले आए. यहां वे अक्सर हम लोगों को हंसाते रहते. हम कभी उनसे कहते कि अब्बा आंखें खोलिए. तो वे एक ही आंख खोलते और कहते- दूसरी वाली अभी आराम कर रही है’. अलबत्ता एक दिन वह भी आया, जब जॉनी वॉकर साहब की दोनों आंखें हमेशा के लिए आराम फ़रमाने चली गईं. साल 2003 के जुलाई की 29 तारीख़ थी वह.

आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़. 

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