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दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़… 

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जनाब, अगर 1970 की दहाई के आख़िर या उसके बाद वाली दो-चार दहाइयों में आपने बचपन गुज़ारा है, तो ज़रा याद कीजिए. कैसे गुज़रता था वक़्त? ख़ास तौर पर छुटि्टयों का़? फिर वे चाहे गर्मियों की हों या सर्दियों की? ज़वाब, लगभग एक से होंगे सबके. कि अव्वल तो घर के बाहर दिन भर तरह-तरह के खेल खेला करते थे. जैसे- गिल्ली-डंडा, पतंगबाज़ी, कबड्‌डी, गेंद-गिप्पी, गुट्‌टे, लंगड़ी टांग, आंख-मिचौली, अष्टा-चंगा, सांप-सीढ़ी, लूडो, कंचे, लुका-छिपी, कैरम, क्रिकेट, खो-खो, वग़ैरा. और जब सालों से चले आ रहे इन पुराने खेलों को खेल-खेलकर थक जाते, बोर हो जाते, तो वक़्त बिताने के लिए नया ज़रिया काम आता. कॉमिक्स, जिसके हाथ में आते ही वक़्त बीतता नहीं, फुर्र हो जाया करता था. याद आया न? पता नहीं, कहां से, कितने जतन कर के कॉमिक्सें जुगाड़ कर के लाई जातीं. और फिर कभी छिप-छिपाकर तो कभी सर-ए-‘आम उनका आनंद लिया जाता.

ये सर-ए-‘आम और छिप-छिपाकर कॉमिक्सें पढ़ने का भी मसला दिलचस्प हुआ. दरअस्ल, हिन्दुस्तान में जब कॉमिक्सों का दौर आया तो उनमें लगभग सभी कहानियां और किरदार विदेशी होते थे. और छोटे शहरों, क़स्बों के सीधे-सादे मां-बाप नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे इनसे वाबस्ता हों. हालांकि, बच्चे तो बच्चे ठहरे, कहां मानने चले. लेकिन जनाब, एक वक़्त आया, जब इन बच्चों और उनके मां-बाप की यह दिक़्क़त कम हो गई. धीरे-धीरे ख़त्म भी हो गई. इसकी शुरुआत हुई, साल 1969 से. उस वक़्त बच्चों की ही एक मैगज़ीन आया करती थी, ‘लोट-पोट’. उसके साथ इधर दिल्ली में, एक कार्टूनिस्ट जुड़े. प्राण कुमार शर्मा. वे पहले ‘मिलाप’ अख़बार के लिए काम किया करते थे. उसमें एक मशहूर कार्टून किरदार बनाया था उन्होंने. ‘दब्बू जी’, जिसके मार्फ़त वे अख़बार के कार्टून-कोने में देश की तमाम अहम सियासी, समाजी घटनाओं पर टिप्पणियां किया करते थे.

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प्राण-साहब की इसी मशहूरियत और क़ाबिलियत की वज़ह से ‘लोट-पोट’ पत्रिका के प्रकाशकों ने उन्हें अपने साथ जोड़ा था. और जनाब, उसमें भी देखिए क्या कमाल किया उन्होंने. पंजाब, हरियाणा के गांवों में चौपालों पर हुक्का गुड़गुड़ाते बड़ी-बड़ी मूछों वाले ‘चौधरी’ को कार्टून बना दिया. ‘चाचा-चौधरी’. फिर उन ‘चाचा-चौधरी’ में अपने नाम के मुताबिक ही ‘प्राण’ फूंके उन्होंने. आम ज़िंदगी में रोज़ ही पेश आने वालीं मुख़्तलिफ़ मसाइल (समस्याएं) से जुड़ी कहानियां लिखीं. मसलन- चोरी, लूट, अपहरण, जेबकटी वग़ैरा. इन मसाइल को चुटकियों में सुलझाने का ज़िम्मा सौंपा अपने कार्टून किरदार ‘चाचा-चौधरी’ को. और ‘चाचा’ भी इस तेजी से मसाइल सुलझाते कि जल्द ही कहा जाने लगा, ‘चाचा-चौधरी का दिमाग़ कंप्यूटर से भी तेज चलता है’. क्यों न हो, उनके ‘दिमाग में प्राण’ जो थे. तो जनाब, जैसे ही ‘चाचा-चौधरी’ का किरदार सामने आया, माहौल ही बदल गया फिर.

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अब हिन्दुस्तान के छोटे शहरों-क़स्बों में ‘लोट-पोट’ पत्रिका के दीवानों की फ़ौज खड़ी होने लगी. इसमें ‘चाचा-चौधरी’ से जुड़ी कहानी के दो-तीन पन्ने ही होते थे. फिर भी बच्चे बेचैनी के आलम में इसके आने का इंतिज़ार किया करते. उनके मां-बाप को भी इस पर कोई ए‘तिराज़ न था. इसी बीच जनाब, एक और वाक़ि’आ हुआ. ये 1981 के आस-पास का है. ‘चाचा-चौधरी’ के साथ अब तक एक और किरदार जुड़ चुका था ‘साबू’. बड़ा हट्‌टा-कट्‌टा. ऊंचा-पूरा. बड़े से चेहरे वाला. उसके बारे में कहा जाता था कि जब ‘साबू को गुस्सा आता है, तो ज्वालामुखी फटने लगते हैं’. जहां ‘चाचा-चौधरी’ को किसी बदमाश की ‘अक़्ल ठिकाने लगाने की ज़रूरत होती, वहां ‘साबू’ उनके काम आता था. दोनों की जोड़ी जम गई. तो जनाब, उनकी मशहूरियत से ‘डायमंड पॉकेट बुक्स’ के मालिक गुलशन राय भी अच्छी तरह वाक़िफ़ हो चुके थे. लिहाज़ा उन्होंने प्राण-साहब से संपर्क किया.

गुलशन राय की पेशकश यह थी कि दो-तीन पन्नों के ब-जाए क्यों न ‘चाचा-चौधरी’ और ‘साबू’ की कहानियों वाली पूरी मैगज़ीन ही शुरू कर दी जाए. प्राण-साहब को ये पेशकश जंच गई और इस तरह डायमंड पॉकेट बुक्स से ‘चाचा-चौधरी’ की कॉमिक्स आनी शुरू हो गईं. ये कॉमिक्स क्या शुरू हुई, हिन्दुस्तान के बच्चों की तो लॉटरी खुल गई गोया. अब तक ‘फैंटम’ और ‘सुपरमैन’ जैसे विदेशी कॉर्टून किरदार उनके पसंदीदा हुआ करते थे. लेकिन ‘चाचा-चौधरी’ और ‘साबू’ ने उन सबकी छुट्‌टी कर दी. बच्चों की अलमारियों में अब इन्हीं दोनों का राज हो गया. साथ ही, किताबों की दुकानें और सड़कों के किनारे लगने वाली दुकानों में भी ‘चाचा-चौधरी’ की कॉमिक्सें ही सजी हुई दिखाई देने लगीं. जो बच्चे इन्हें ख़रीद सकते थे, वे ख़रीद लेते. पर जो नहीं ख़रीद सकते थे, उनके लिए ख़ास सुविधा. किराए पर कॉमिक्स दिए जाने की. इससे कई बेरोज़गारों ने रोज़ी कमाई.

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उस वक़्त 25 पैसे किराया लगा करता था, 24 घंटे तक कॉमिक्स पास रखने का. दिलचस्प बात ये कि इस दौरान एक कॉमिक्स को कम से कम चार-पांच बच्चे मिलकर पढ़ा करते. किराए से लाते तो बाकी काम-धंधा छोड़कर सबसे पहले 40-50 पेज की नई कॉमिक्स ही निपटाई जाती. दो-तीन घंटे में ही. ताकि उसे दूसरे साथी को देकर उससे दूसरी वाली हासिल की जा सके. क्योंकि वह अपने पैसों से किसी दूसरी कहानी वाली कॉमिक्स लाता था. इस तरह 24 घंटे में 25 पैसे के किराए में ही बारी-बारी से चार-पांच कॉमिक्स का आनंद लिया जाता. इस चक्कर में कई बार पिटाई का भी आनंद मिलता. क्योंकि मां-बाप को अब चिंता ये होने लगी थी कि कॉमिक्सों के चक्कर में कहीं पढ़ाई से दूर न हो जाए उनकी औलाद. पर जनाब, पिटाइयां खाते रहने के बावजूद कॉमिक्स की लत से दूर न हुआ कोई. शायद, इसी का असर था कि ‘चाचा-चौधरी’ का कुनबा भी बढ़ा फिर.

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प्राण-साहब ने ‘चाचा-चौधरी’ के कुनबे में बिल्लू को जोड़ा. क्रिकेट का क़द्र-दान था लेकिन बाल हमेशा खड़े रहते थे. इसी तरह, ‘श्रीमती जी’, जिनका पति के साथ झगड़ा चलता रहता था. आम हिन्दुस्तानी घरों की तरह. और ‘चन्नी चाची’. जैसी आम तौर पर गांव की चाचियां हुआ करती हैं. उन्हीं की तरह, ‘पिंकी’ और ‘रमन’ भी. हर किरदार अपना सा, अपने बीच का. विदेश के ‘फैंटम’ और ‘सुपरमैन’ की तरह प्राण-साहब के इन किरदारों में अद्वितीय शक्तियां नहीं होती थीं. फिर भी इतनी ताक़त हुआ करती थी कि एक बार आप इनकी पकड़ में आए, तो फिर छूट नहीं सकते थे. अलबत्ता, ‘चाचा-चौधरी’ बेशक इन तमाम किरदारों के ‘राजा’ हुए. वह भी इस तरह कि हिन्दुस्तान की सरहदों से बाहर भी उनके चर्चे हुए. बताते हैं, अमेरिका के इंटरनेशनल म्यूज़ियम ऑफ़ कार्टून आर्ट में ‘चाचा-चौधरी’ ने दुनिया के मशहूर कार्टूनों में से एक होने की हैसियत से जगह पाई है.

यही नहीं, ‘चाचा-चौधरी’ की कहानियों पर एक सीरियल भी बन चुका है. ‘मुंगेरी लाल के हसीन सपने’ वाले अदाकार रघुबीर यादव ने ‘चाचा-चौधरी’ का इसमें किरदार निभाया है. यह साल 2001 में टीवी पर आया था. इसके अलावा एनीमेशन फिल्म भी बनी है. टॉम-एंड-जैरी जैसी. प्राण-साहब का एक और मशहूर किरदार ‘रमन’ तो साल 1983 में सीधे तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक भी पहुंच गया था. कहते हैं, उस वक़्त इंदिरा गांधी ने प्राण-साहब की सीरीज़ जारी की थी, ‘रमन- हम एक हैं’. यह राष्ट्रीय एकता पर आधारित थी. इस तरह यही कोई 50 साल से ज़्यादा का सफ़र रहा प्राण-साहब का. और वह सफ़र आज की ही तारीख़ में, साल 2014 में तब आकर ठहरा, जब प्राण-साहब के ‘प्राणों’ ने ज़िस्म का साथ छोड़ दिया. हालांकि तब तक वे 500 से ज़्यादा कॉमिक्स लिख गए. अंग्रेजी, हिन्दी, बांग्ला सहित 10 ज़बानों में 25 हजार से ज़्यादा कॉमिक फीचर बना गए.

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कहते हैं, पश्चिम के मुल्कों में कार्टून की दुनिया के लिए जो काम वॉल्टर (वॉल्ट) एलियास डिज़्नी ने किया, वही हिन्दुस्तान में प्राण-साहब के ख़ाते में दर्ज़ हुआ है. इसीलिए उन्हें ‘हिन्दुस्तान का वॉल्ट डिज़्नी’ भी कहा जाता है. दिलचस्प बात ये कि इन दोनों के ही साथ तारीख़ों और महीनों का अनोखा इत्तिफ़ाक भी जुड़ा है. मसलन- प्राण-साहब की पैदाइश 15 अगस्त 1938 को लाहौर के नज़दीकी क़स्बे कसूर में हुई. जबकि अगस्त महीने की ही पांच तारीख़ को उन्होंने यह दुनिया छोड़ी. इसी तरह वॉल्ट डिज़्नी पांच दिसंबर (1901) को पैदा हुए. वहीं दिसंबर की ही 15 तारीख़ (1966) को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा. अब ये इत्तिफ़ाक यूं ही तो नहीं हुए होंगे. क्योंकि इससे आगे एक बात और है कि वॉल्ट डिज़्नी के जाने के बाद पश्चिम में आज तक उनकी जगह कोई ले नहीं पाया. ऐसे ही, हिन्दुस्तान में प्राण-साहब और उनके किरदारों की जगह कोई न ले सका.

मशहूर कार्टूनिस्ट सुधीर तैलंग ने भी कहा था एक बार, ‘प्राण-साहब के कार्टून-किरदारों से मुक़ाबले के लिए आगे चलकर कई कार्टून बने. जैसे- छोटू-लंबू, मोटू-पतलू, वग़ैरा. लेकिन प्राण-साहब और उनके चाचा-चौधरी को टक्कर कोई न दे सका’. हालांकि अब ये मुमकिन है जनाब, कि ‘चाचा-चौधरी का दिमाग़ पहले की तरह कंप्यूटर से तेज न चले’ क्योंकि उससे ‘प्राण’ जो निकल गए हैं.

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