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दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…

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जनाब, तो कल 30 नवंबर को जो दास्तान शुरू हुई, वह छूटी थी इस पर कि महमूद बेगड़ा नाम के ‘गुजरात के ज़हरीले सुल्तान’ ने सिर्फ़ चंपानेर-पावागढ़ के सिद्ध शक्ति-पीठ में ही तोड़-फोड़ नहीं की. उसने श्रीकृष्ण की द्वारका को भी निशाना बनाया. बल्कि चंपानेर-पावागढ़ से भी क़रीब एक दहाई पहले द्वारका उसके निशाने पर आई. काफ़ी ‘बिगाड़’ किया था वहां उसने. इस बारे में आगे तफ़्सील से बताएंगे पर पहले ‘बेगड़ा’ से जुड़े एक दिलचस्प पहलू या कहें गुत्थी पर रोशनी डाल लेते हैं. वह ये कि बीते दौर की तारीख़ी किताबें लिखने वाले तमाम लोगों ने बेगड़ा को बार-बार ‘ज़हरीला सुल्तान’ कहा है. मसलन- हिन्दुस्तान के एक मशहूर इतिहासकार हुए अब्राहम एराली. उन्होंने ‘द लास्ट स्प्रिंग : द लाइव्ज़ एंड टाइम्स ऑफ द ग्रेट मुग़ल्स’ जैसी कई किताबें लिखीं. उनकी एक किताब 2014 में आई, ‘द एज ऑफ रैथ : ए हिस्ट्री ऑफ़ डेल्ही सल्तनत’.

अपनी इस किताब के सिलसिले में उस वक़्त ख़बरनवीसों से बातचीत के दौरान एराली ने बड़े साफ़ तौर पर कहा था कि बेगड़ा को बचपन से ही धीरे-धीरे ज़हर देकर ज़हरीला बना दिया गया था. ऐसे ही एक हैं मनु एस. पिल्लई. वे भी इतिहास से जुड़े मसलों पर खूब लिखते हैं. उनकी वेबसाइट पर उनके लिखे तमाम क़िस्से-कहानियां सुबूतों के साथ मौज़ूद हैं. इन क़िस्सों में भी ‘गुजरात के ज़हरीले सुल्तान’ महमूद बेगड़ा का वाक़ि’आ दर्ज़ है. ऐसे ही, तारीख़ी क़िस्से-कहानियों में बार-बार ये बातें भी आती हैं कि ‘बेगड़ा’ के ज़िस्म में इतना ज़हर भर चुका है कि वह किसी पर थूक दे तो सामने वाला कुछ घंटों में मर जाता था. उसकी भूख राक्षसी थी. उसके ज़िस्म पर कोई मक्खी या कीट-पतंगा बैठ जाए, तो वह तुरंत मर जाता था. उसके कपड़े भी ज़हर के असर में पाए जाते थे. उसके साथ सोने वाली औरतें भी ज़हर के असर की वज़ह से ज़िंदा नहीं रह पाती थीं.

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अब जनाब दिलचस्प बात ये कि इस तरह की बातें लिखने वाले कुछ लोग तो बड़े मुतमइन अंदाज़ में इन बातों का ज़िक्र करते हैं. गोया कि उन्हें ख़ुद ये भरोसा हो कि ऐसा कुछ वाक़’ई में हुआ होगा. लेकिन एराली और पिल्लई जैसे कुछेक लोग साथ में यह जोड़ना नहीं भूलते कि ‘बेगड़ा’ के बाबत कही-सुनी जाने वाली बातों को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया है. मसलन, वह दिन-भर में 10-15 किलो भोजन तो शायद कर लेता होगा. लेकिन क़िस्से-कहानियों में वक़्त के साथ भोजन की मात्रा बढ़ते-बढ़ते 30-35 किलो तक जा पहुंची. इसी तरह उसकी दाढ़ी-मूंछ की लंबाई भी क़िस्सों में बढ़ती गई और कहा जाने लगा कि वह अपनी मूंछों को सिर पर साफ़े की तरह  बांध लेता था. जबकि ‘बेगड़ा’ के ही दौर के चित्रकारों ने उसके जो चित्र बनाए, और जो आज भी कई म्यूज़ियम वग़ैरा में मिल जाते हैं, उनमें वह सामान्य दाढ़ी-मूंछ वाले सुल्तान की तरह ही दिखता है.

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मतलब, कुल मिलाकर ये तय है कि ‘बेगड़ा’ के बारे में बहुत सी बातें कुछ ज़्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर कही गईं हैं. अलबत्ता, ये पुख़्ता सुबूतों के साथ तारीख़ में दर्ज़ है कि ‘बेगड़ा’ मज़हबी तौर पर कट्‌टर सुल्तान था. मनु एस पिल्लई जैसे तमाम लेखक इस बात को मानते हैं. साथ में यह भी कि जूनागढ़ और चंपानेर-पावागढ़ जैसे इलाक़ों पर ‘बेगड़ा’ ने अपनी इसी कट्‌टर सोच की आड़ में क़ब्ज़ा किया था. क़ब्ज़े के बाद वहां के राजाओं को मज़बूर किया कि वे उसका मज़हब क़ुबूल करें. बताते हैं कि जूनागढ़ के राजाओं ने तो उसकी बात मान ली लेकिन चंपानेर के राजा और उनके मंत्रियों ने मानीं. नतीज़े में ‘बेगड़ा’ ने उन सभी को मौत के घाट उतार दिया. इतना ही नहीं, ‘बेगड़ा’ ने साल 1484 में चंपानेर-पावागढ़ को अपनी राजधानी बनाने के बाद जब उसकी सूरत बदलने की कोशिश की, तो तब भी उस कार्रवाई के पीछे उसकी यही सोच काम कर रही थी.

और सिर्फ़ चंपानेर-पावगढ़ ही नहीं, क़रीब एक दहाई पहले यानी 1474 के आस-पास, जब ‘बेगड़ा’ ने द्वारका में ‘बिगाड़’ किया, तो उस वक़्त भी उसके ज़ेहन में भरे कट्‌टर सोच के ज़हर ने ही अपना ये रंग दिखाया था. उस दौरान ‘बेगड़ा’ गुजरात की सल्तनत अहमदाबाद से चलाया करता था, जिसे उसके दादा पहले-अहमद शाह ने अपनी राजधानी बनाया था. कहते हैं, ‘बेगड़ा’ उस वक़्त इन बातों से ‘आजिज़ आ चुका था कि द्वारका की तरफ़ से मक्का-मदीना जाने वाले हाजियों के जहाज़ों पर समुद्री लुटेरे हमला कर दिया करते हैं. उसे इस बात का अंदेशा था कि इन समुद्री लुटेरों को द्वारका में रहने वालों और वहां के मंदिर के पुजारियों से भी कुछ मदद मिलती है. लिहाज़ा, उसने एक रोज़ द्वारका पर भयंकर हमला बोल दिया. इस दौरान वहां ख़ूब उत्पात मचाया. वहां के मुख्य द्वारकाधीश मंदिर और अन्य मंदिरों में भारी तोड़-फोड़ की.

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जनाब, द्वारका पर ‘बेगड़ा’ के हमले का ज़िक्र इस जिले की सरकारी वेबसाइट में भी मिलता है. इसमें बताया गया है कि ‘बेगड़ा’ के हमले से टूट-फूट गए द्वारकाधीश मंदिर को फिर 16वीं सदी में बनवाया गया था. द्वारकाधीश मंदिर की वेबसाइट में भी ये ज़िक्र मिलता है कि द्वारका और द्वारकाधीश मंदिर इसी तरह एक बार नहीं कई बार हमलावरों के निशाने पर आया. लेकिन फिर बार-बार इस मंदिर को किसी न किसी ने बनवा भी दिया. वैसे, तोड़-फोड़ की बात छोड़ दें और बनवाने की करें तो द्वारका में यह सिलसिला सबसे पहले राजा वज्रनाभ ने शुरू किया. ऐसा ज़िक्र मंदिर की वेबसाइट में ही दर्ज़ है. वज्रनाभ भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र कहे जाते हैं. श्रीकृष्ण के सबसे बड़े पुत्र का नाम था प्रद्युम्न. इसके बाद उनके पुत्र हुए अनिरुद्ध और फिर उनकी संतान वज्रनाभ. ये उन चुनिंदा यदुवंशियों में हुए, जो श्रीकृष्ण के जाने के बाद उनके पीछे रह गए थे.

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कहते हैं, महाभारत की लड़ाई में पांडवों के हाथों अपने सभी पुत्रों को गंवा देने से हस्तिनापुर की महारानी गांधारी बहुत दुखी हो गईं थीं. वे मानती थीं कि पांडवों की जीत और उनके लड़कों के मारे जाने के पीछे द्वारकाधीश श्रीकृष्ण का हाथ है. लिहाज़ा, लड़ाई ख़त्म होने के बाद पांडवों के साथ जब श्रीकृष्ण हस्तिनापुर पहुंचे तो गांधारी ने उन्हें श्राप दे दिया. कहा, ‘जैसे आपकी वज़ह से मेरा वंश ख़त्म हुआ, उसी तरह आपका भी वंश ख़त्म हो जाएगा कृष्ण’. और, फिर एक रोज़ गांधारी का श्राप सच हो गया. श्रीकृष्ण के उनके धाम जाने से पहले उनके सामने ही यदुवंशी आपस में लड़-झगड़कर ख़त्म होने लगे. उनकी राजधानी द्वारका भी समंदर में समाने लगी. लेकिन तभी आख़िरी वक़्त में श्रीकृष्ण के नज़दीकी दोस्त उद्धव आए. उन्होंने श्रीकृष्ण से गुज़ारिश की कि ‘प्रभु, अपने पीछे अपनी कुछ निशानियां तो छोड़ जाइए, जो लोगों काे आपकी याद दिलाती रहें’.

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लिहाज़ा, यदुवंश की कुछ रानियां, वज्रनाभ, और द्वारका-पुरी का ‘हरि-मंदिर’ (भगवान विष्णु का मंदिर) पीछे बच रहा. उसी मंदिर को वज्रनाभ ने फिर नई शक़्ल-ओ-सूरत दी. हालांकि वक़्त गुज़रने के साथ-साथ इस मंदिर और इस शहर की शक़्ल-ओ-सूरत में इतना रद्द-ओ-बदल हुआ कि पूछिए मत. सो, अभी कुछ 150-200 साल पहले के दौर की बात करें तो उसमें एक ज़िक्र है, बड़ौदा के राजा खांडेराव गायकवाड़-दूसरे का. अंग्रेजों के दौर में नवंबर 1856 से नवंबर 1870 के बीच इनका शासन रहा. इसी दौरान इन्होंने 1861 में द्वारकाधीश मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था. उस वक़्त अंग्रेज सरकार ने भी मंदिर के शिखर को बनवाने में मदद की थी, जो तब कुछ सालों पहले हुई एक लड़ाई के दौरान टूट गया था. इसके बाद बड़ौदा रियासत के ही राजा सयाजीराव गायकवाड़-तीसरे ने 1903 में मंदिर में स्वर्णकलश लगवाया. साल 1958 में तब के शंकराचार्य ने भी इस मंदिर को मौज़ूदा सूरत देने में अपना अहम किरदार अदा किया, ऐसा कहा जाता हैं. इसके बाद द्वारका का पूरा दार-ओ-मदार साल 1960 में आज़ाद हिन्दुस्तान की सरकार ने अपने हाथ में ले लिया.

हालांकि द्वारका मंदिर और द्वारका-पुरी का क़िस्सा इतने पर भी पूरा नहीं होता. इस क़िस्से में अभी और भी तमाम पहलू हैं. इनमें एक दिलचस्प वाक़ि’आ वह भी है, जब 1965 में पाकिस्तान ने इस मंदिर को तहस-नहस करने का मंसूबा बांधा था. लेकिन वह कामयाब न हो सका. उसके बारे में बात करेंगे, कल यानी दो दिसंबर को.

आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़. 

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