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दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…

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जनाब, वह साल था 1928 का, जब पेशावर से चली ‘फ्रंटियर मेल’ (आजकल ‘पंजाब मेल’ कही जाती है) बंबई के कोलाबा स्टेशन पर रुकी थी. उस ट्रेन से 21 साल का एक नौजवान प्लेटफॉर्म पर उतरा. हाथ में सूटकेस और जेब में बस, 75 रुपए लिए. स्टेशन से बाहर पहुंचते ही उसने रौबदार आवाज़ में ‘विक्टोरिया’ (बग्घी) वाले को बुलाया. नज़दीक आया तो उसे हुक़्म दिया, ‘मुझे समंदर देखना है’, ‘जी हुज़ूर’, विक्टोरिया वाले ने कहा और वह उसे समंदर किनारे ले गया. वहां पहुंचकर कुछ देर खड़े-खड़े वह नौजवान समंदर को निहारता रहा. गाेया, समंदर की गहराई, उसके बल की थाह ले रहा हो. मन ही मन मंसूबा बांध रहा हो कि ‘बंबई के इस समंदर’ (फिल्मी समझिए) पर हुक़ूमत क़ायम करनी है. और चंद गुजरते सालों में वह अपने मंसूबे में कामयाब हुआ भी. ये नौजवान जानते हैं कौन था? पृथ्वीराज कपूर. हिन्दी फिल्मों की दुनिया के ‘पापा जी बादशाह’.

हिन्दी फिल्मों की दुनिया में किसी को अगर ‘पहले ख़ानदान’ का दर्ज़ा मिला है न, तो वह ‘कपूर ख़ानदान’ को. क्योंकि यह इक़लौता ख़ानदान है शायद, जिसकी आज चौथी पीढ़ी भी फिल्मों में असर क़ायम किए हुए है. इस ख़ानदान के पहले चश्म-ओ-चराग़ यानी हिन्दी ज़बान में ‘कुल-दीपक’ कहिए, पृथ्वीराज कपूर ही थे. पृथ्वीराज साहब, जिन्हें उनके जानने वाले ‘पापा जी’ कहते थे. क्योंकि वह हिन्दी फिल्मों के पहले ‘शो-मैन’ राज कपूर साहब के पिता जी थे. मगर जनाब, इन्हीं पृथ्वीराज कपूर ने फिल्मी दुनिया से बाहर वालों के लिए ‘बादशाह’ सरीख़ी हैसियत हासिल की थी. बल्कि ‘थी’ क्यों कहें, आज भी की हुई है. यक़ीन न होता हो, तो ज़रा ‘अकबर बादशाह’ के बारे में ख़ुद ही ख़्याल कर के देखिए. मतलब यह कि ‘अकबर बादशाह’ कैसे दिखते रहे होंगे. किस तरह चलते रहे होंगे. उनके बोलने का अंदाज़ कैसा रहा होगा, वग़ैरा. कुछ याद आया क्या?

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जनाब, दावे के साथ कहा जा सकता है कि ज़ेहन में कोई तस्वीर अगर कौंधी होगी न, तो वह ‘मुग़ल-ए-आज़म’ फिल्म के अक़बर बादशाह, यानी पृथ्वीराज कपूर की होगी. क्याेंकि हिन्दुस्तान में आज जितनी भी पीढ़ियों के लोग मौज़ूद हैं, उनमें से ‘अकबर बादशाह’ को तो किसी ने नहीं देखा होगा. लेकिन बहुत मुमकिन है कि ‘कमाल आसिफ़’ (के. आसिफ़ को यही कहना चाहिए) की फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ ज़रूर देखी होगी. और अगर देखी है, तो ये भी तय मान ही लीजिए कि उस फिल्म के ‘अकबर बादशाह’ पृथ्वीराज कपूर ने देखने वाले के ज़ेहन में किसी और की तस्वीर चप्पा होने नहीं दी होगी, इस हैसियत में. अलबत्ता, इन ‘अकबर बादशाह’ ने फिल्मों में जब अपने सफ़र की शुरुआत की, तो वह किसी फ़क़ीर की हैसियत से की थी. फिल्मों वाले ‘किरदारी फ़क़ीर’ नहीं, अस्ल ज़िंदगी के फ़क़ीर. हालांकि ख़ानदानी हैसियत उन्होंने तब भी असरदार पाई थी.

Prirhviraj kapoor

अंग्रेजों के दौर में हिन्दुस्तान के पंजाब का एक क़स्बा होता था लायलपुर. आजकल पाकिस्तान के फ़ैसलाबाद में है. वहीं समुंद्री नाम की एक जगह है, जहां पृथ्वीराज साहब की पैदाइश हुई. तारीख़ थी तीन नवंबर यानी आज की और साल 1906 का. इनके पिता बशेश्वरनाथ अंग्रेजों की ‘इंपीरियल पुलिस’ में अफ़सर होते थे और दादा जी केशवमल तहसीलदार. इस क़िस्म के ओहदे वाले लोग उस वक़्त बहुत बड़ी हैसियत वाले समझे जाते थे. और उम्मीद यही रहती थी कि ऐसे ख़ानदानों की औलादें भी बाप-दादों के सिलसिले को आगे बढ़ाएंगी. समाजी, सरकारी तौर पर बड़ी हैसियत, बड़ा ओहदा हासिल करेंगी. लेकिन पृथ्वीराज साहब ने नया ही क़िस्सा शुरू कर दिया. बचपन से वे अदाकारी और फिल्मों की दुनिया के साथ दिल लगा बैठे. मां-बाप ने देखा तो महज़ 17 बरस की उम्र में ब्याह कर दिया. इसके एक बरस बाद बड़ा बेटा भी हो गया उनके.

लेकिन ये तमाम चीज़ें फ़िल्मों की तरफ़ बढ़ने से पृथ्वीराज साहब के क़दम रोक नहीं पाईं. फिल्मों में क़िस्मत आजमाने के लिए आख़िरकार वह बंबई पहुंच ही चुके थे. हालांकि अपनी ख़ानदानी हैसियत को छोड़कर यहां ‘माया की नगरी’ में नई शुरुआत कोई आसान नहीं हुई उनके लिए. भीड़ में शुमार होने वाले एक्स्ट्रा कलाकार की हैसियत से शुरुआत करनी पड़ी. वह अबोली फिल्मों का दौर हुआ करता था. लेकिन पृथ्वीराज साहब की अदाकारी एक्स्ट्रा कलाकारों की उस भीड़ के बीच में से भी बोल पड़ी. लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ खींच ले गई. और तीसरी ही फिल्म में वह ‘एक्स्ट्रा कलाकार’ के बजाय फिल्मी पर्दे पर नज़र आए, मुख्य अदाकार के तौर पर. ये फिल्म थी, ‘सिनेमा गर्ल’, साल 1929 में आई थी. यानी महज़ एक साल के भीतर पृथ्वीराज साहब ने बंबई के फिल्मी समंदर पर हुक़ूमत करने के लिए पुर-असर तरीके से अपने क़दम बढ़ा दिए थे.

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फिर इसके बाद एक बड़ा मौका तब आया, जब पहली बोलती फिल्म बनी. ‘आलम-आरा’, जिसमें पृथ्वीराज साहब सहायक-कलाकार, मगर असरदार किरदार में नज़र आए. फिल्मकार अर्देशिर ईरानी ने उन्हें अपनी इस फिल्म में ‘सेनापति आदिल’ का किरदार दिया था, जिसका सुल्तान की दूसरी बीवी ‘दिलबहार’ से इश्क़ हो जाता है. लेकिन अपने अब तक के करियर की सबसे ज़्यादा मशहूरियत उन्हें तब मिली जब वे मशहूर फिल्मकार सोहराब मोदी की फिल्म ‘सिकंदर’ (1941) में सिकंदर के किरदार में दिखाई दिए. बताते हैं कि इसके लिए मोदी-साहब ऐसे अदाकार की तलाश में थे, जो आवाज़ के वज़न और डायलॉग-डिलीवरी के मामले में ख़ुद उन्हें टक्कर दे सके. अपनी इस फिल्म के लिए उन्होंने ख़ुद को राजा पोरस (पौरुष) के किरदार के लिए तय किया था. सो, ‘सिकंदर’ उन्हें अपनी बराबरी का चाहिए था. और यह ‘बराबरी’ उन्हें हासिल हुई पृथ्वीराज साहब से.

Prirhviraj kapoor

इस तरह, फिल्मों की दुनिया में क़रीब 18-20 साल का वक़्त गुज़रते-गुज़रते पृथ्वीराज साहब एक कामयाब फेरा पूरा कर चुके थे. मगर उन्हें इससे आगे भी बहुत कुछ करना था. लिहाज़ा पृथ्वीराज साहब ने ‘पृथ्वी थिएटर’ की नींव डाल दी अब. यह साल था 1944 का. कहते हैं, पृथ्वीराज साहब ने इस ‘पृथ्वी थिएटर’ को बनाने के लिए अपनी पूरी ज़मा पूंजी लगा दी थी. और ख़ुद झोली उठाकर फ़कीर की तरह इस थिएटर के दरवाज़े पर जा खड़े हुए थे. जी हां, सच है ये. बहुत से लोग बताया करते हैं. दस्तावेज़ में दर्ज़ है कि ‘पृथ्वी थिएटर’ के कलाकार उस वक़्त पूरे मुल्क में घूम-घूमकर नाटकों का प्रदर्शन किया करते थे. तब पृथ्वीराज साहब भी उनके साथ होते और जिस जगह नाटक हो रहा होता, वहां दरवाज़े पर झोली लेकर खड़े हो जाते. ताकि नाटक देखने आए लोग, उसमें कुछ रुपए-पैसे डालते जाएं. जिससे कि इन पैसों से ‘पृथ्वी थिएटर’ के कलाकारों की मदद हो सके.

इस तरह, पृथ्वीराज साहब अब एक साथ तिहरी भूमिकाएं अदा कर रहे थे. एक तरफ़ वे फिल्मों के आला अदाकार थे. दूसरी तरफ़, ‘पृथ्वी थिएटर’ के मालिक और तीसरे किरदार में वे अपने से जुड़े तमाम लोगों के संरक्षक भी. इन तीन किरदारों में उन्होंने ख़ुद को किस असरदार तरीके से ढाला, इसकी एक मिसाल तो दी जा चुकी, पृथ्वी थिएटर वाली. अब दो मिसालें और देखिए. बात ‘सिकंदर’ फिल्म की शूटिंग के वक़्त की ही है. बताते हैं कि तब ‘बड़ी हैसियत वाले’ सोहराब मोदी अक़्सर शूटिंग पर देर से आने वाले अदाकारों को बुरी तरह सबके सामने डांट दिया करते थे. जो लोग उनके साथ इज़्ज़त से पेश न आते, वे उन्हें भी फ़टकार देते थे. लेखिका मधु जैन अपनी किताब ‘द कपूर्स’ में लिखती हैं, ‘ऐसे ही एक बार सैट पर सिकंदर का भेष धरे हुए पृथ्वीराज साहब बैठे थे कि तभी सोहराब मोदी आ गए. उन्हें देखकर पृथ्वीराज साहब न खड़े हुए, न दुआ-सलाम की’.

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‘बस, इतनी बात पर ही सोहराब मोदी हत्थे से उखड़ गए. रौबदार आवाज़ में लगभग डपटते हुए पृथ्वीराज साहब से इस बे-अदबी की वज़ह पूछी. तो पूरे इत्मीनान से पृथ्वीराज साहब ने ज़वाब दिया- आप इस वक़्त ‘सिकंदर : द ग्रेट’ से बात कर रहे हैं. और सिकंदर सोहराब मोदी को नहीं जानता… बस, इतना सुनना था कि सोहराब मोदी के तेवर बदल गए. उन्होंने उन्हें सैल्यूट करते हुए कहा- लेकिन मैं अपने सिकंदर को अच्छी तरह जानता हूं’. इसी तरह का एक वाक़ि’आ फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की शूटिंग का भी. किताब ‘पृथ्वीवालाज़’ की सह-लेखिका दीपा गहलोत के मुताबिक, ‘पृथ्वीराज साहब की अदाकारी की ज़मीन थिएटर से तैयार हुई थी. इसलिए अस्ल सी अदाकारी पर उनका बहुत ज़ोर रहता था. इसी वज़ह से ‘मुग़ल-ए-आज़म’ में जब बादशाह अकबर बेटे की मन्नत मांगने अजमेर जाते हैं, तो पृथ्वीराज साहब वाक़’ई नंगे पैर गरम रेत पर चले थे’.

यानी जनाब, दिन, महीने, साल गुज़रते-गुज़रते पृथ्वीराज साहब ने सही मायनों में फिल्मी दुनिया के ‘पापा जी बादशाह’ की हैसियत पा ली थी. बंबई की ज़मीन पर क़दम रखते ही पहली बार समंदर को निहारते हुए उस पर बादशाहत का जो मंसूबा बांधा, उसे पूरा कर लिया था. ऐसी, बादशाहत जिसे उनके साहबज़ादे राज कपूर साहब ने और असर-ख़ेज़ किया. और उनसे आगे आने वाली पीढ़ियों ने उससे ज़्यादा, जिसकी कहानियां किसी एक ‘दास्तान’ में तो क्या एक मुक़म्मल किताब में भी पूरी न समाएं. पर कहीं न कहीं तो हद खींचनी ही होगी. इसीलिए…

आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.

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