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दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…

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जनाब, चमड़ी के रंग पर मत जाइए. क्योंकि वह तो ‘गोरों’ का भी कभी-कभी काला नज़र आता है. और जिन्हें ‘काला’ कहते हैं, वे नस्ल से ‘गोरे’ पाए जाते हैं. लिहाज़ा, उस पहलू पर ग़ौर करें जो बराक ओबामा के साथ जुड़ता है. जो सफ़ेद है, उजला है, धवल है. जो तमाम अंधेरों को नीस्त-नाबूद कर के आज यानी चार नवंबर को ही दुनिया के फ़लक पर उभरा था. साल था 2008 का, जब चुनाव में जीत के साथ तय हो गया था कि बराक हुसैन ओबामा का नाम दुनिया के ‘सबसे ताक़तवर कहलाने वाले’ मुल्क की तारीख़ में ‘पहले अश्वेत राष्ट्रपति’ के तौर पर जुड़ रहा है, नस्ल के हिसाब से. हालांकि, हासिल के लिहाज़ से उन्हें ‘अमेरिका का पहला श्वेत राष्ट्रपति’ कहें तो ग़लत होगा क्या? यक़ीनन नहीं. क्योंकि उनका यह हासिल कितना बड़ा था, इसका अंदाज़ा इसी से लगा सकते हैं कि साल 2009 में, ओबामा को राष्ट्रपति बने जब साल भी पूरा नहीं हुआ था, तब उन्हें नोबेल पुरस्कार देने का ए’लान कर दिया गया था. हालांकि ओबामा के लिए भी चौंकाने वाला मसला था यह.

बीबीसी ने सितंबर 2015 में एक रिपोर्ट लिखी थी जनाब. ओबामा को नोबेल पुरस्कार देने का फ़ैसला करने वाली समिति में ओहदेदार रहे गेर लूनेश्टा ने उसमें माना था, ‘समिति ने इस उम्मीद से पुरस्कार के लिए ओबामा को चुना था कि इससे अमेरिका में उनकी छवि सुधरेगी. एक वर्ग-विशेष का इससे हाैसला बढ़ेगा’. हालांकि लूनेश्टा की मानें, तो ‘खुद ओबामा ने कहा था कि वे यह पुरस्कार मिलने से हैरान हुए थे. उनके कुछ समर्थकों ने तो ये तक सोच लिया था कि शायद कोई गलती हुई है. इसीलिए, ओबामा ने शायद ये भी सोचा था कि वे पुरस्कार लेने नॉर्वे की राजधानी ओस्लो न जाएं. मगर व्हाइट हाउस में लोगों को जल्द ही एहसास हो गया कि ओबामा को ओस्लो जाना चाहिए. क्योंकि बहुत कम मौकों पर ही ऐसा हुआ है, जब पुरस्कार पाने वाली शख़्सियत उसे लेने वहां न आई हो’. अलबत्ता, बहस ये अभी जारी है कि उन्हें पुरस्कार मिलना सही था या नहीं.

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लेकिन इस पर अमेरिका तो क्या, दुनिया के भी किसी कोने में कोई बहस नहीं है कि 2008 में ओबामा का जो हासिल था, वह बहुत बड़ा था. क्योंकि उन्होंने उस मुल्क में ये कारनामा किया था, जहां ‘गोरी-काली नस्ल की लड़ाई’ का लंबा इतिहास रहा है. जहां, अभी जनवरी 2021 में ‘किसी के नस्ली-उकसावे’ पर भीड़ की शक्ल में हजारों लोगों ने उस इमारत पर धावा बोला था, जिसे वहां की संसद कहते हैं. जहां, अब तक मौके-बे-मौके ‘ख़ास नस्ल’ ये साबित करने में जुटी रहती है कि बराक ओबामा ‘अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति नहीं’ थे. बल्कि, जॉन हैनसन थे. जबकि फरवरी- 2020 में ‘यूएसए टुडे’ ने जांच-पड़ताल से साबित किया कि यह दावा झूठा है. जिन जॉन हैनसन की तस्वीर ‘पहले अश्वेत राष्ट्रपति’ के तौर पर साझा की जा रही है, वे दरअस्ल, लाइबेरिया मूल के सीनेटर (राज्यसभा जैसे अमेरिकी उच्च सदन के सदस्य.) होते थे, 1850 की दहाई में कभी.

Barack Obama

ऐसे में, महज़ ये ख़्याल ही किया जा सकता है कि ओबामा को यह हैसियत हासिल करने में किस-किस तरह की मुश्किलात का सामना करना पड़ा होगा. उन्होंने अपनी ज़िंदगी के तमाम पहलुओं का ख़ुलासा करती तीन किताबें लिखी हैं. इनमें पहली ‘ड्रीम्स फ्रॉम माई फादर’, दूसरी ‘द ऑडासिटी ऑफ़ होप’ और तीसरी ‘ए प्रॉमिस्ड लैंड’ के नाम से. ये तीसरी किताब तो अभी दो साल पहले 2020 में ही आई है. ओबामा की पत्नी मिशेल की भी एक किताब है, ‘बिकमिंग’, जो 2018 में आई. उसमें भी बहुत सी बातें हैं, जो ‘अश्वेत ओबामा’ के ‘सफ़ेद इंक़िलाब’ या ‘श्वेत क्रांति’ बन जाने की कहानी कहती हैं. इन्हीं में से ओबामा की पहली किताब वह वाक़ि’अे बताती है, जब उन्हें क़दम-क़दम पर नस्ली हमलों का सामना करना पड़ा, बचपन से जवानी तक. यहां तक कि जिन्हें वे अपना जिगरी मानते थे, वे दोस्त भी मौक़ा पड़ने पर उन पर फ़ब्तियां कसने से चूकते नहीं थे.

ऐसा ही एक वाक़ि’आ उन्होंने एक पॉडकास्ट सीरीज़ ‘रेनीगेड्स बॉर्न इन द यूएसए’ में साझा किया था. अब ये पॉडकास्ट तो सब जानते ही होंगे, इंटरनेट पर चलने वाला रेडियो हुआ करता है. इस पर धारावाहिकों की शक्ल में कार्यक्रम आया करते हैं. उन्हें नई ज़बान में सीरीज़ कहा करते हैं. तो, उस ‘सीरीज़’ में ओबामा ने बताया था, ‘मेरा एक जिगरी यार होता था. जब मैं स्कूल में पढ़ा करता था, तो हम अक्सर साथ में ही रहते थे. साथ में बास्केटबॉल खेला करते थे. लेकिन तभी एक बार खेल के दौरान हमारी लड़ाई हो गई. उसके बाद जब हम कपड़े बदलने लॉकर रूम में आए तो उसने गुस्से में मुझ पर नस्ली-टिप्पणी कर दी. उसने जो कहा था, उसका तो उसे शायद मतलब भी पता नहीं था. लेकिन मैं जानता था. मैंने ए’तिराज़ जताया. उससे कहा कि वह माफ़ी मांगे. लेकिन जब उसने माफ़ी नहीं मांगी तो मुझे भी गुस्सा आ गया. मैंने मुक्का मारकर उसकी नाक तोड़ दी थी’.

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लेकिन मसला सिर्फ़ इतना ही नहीं रहा जनाब. बचपने की बातें तो जाने दीजिए, जब बड़े हुए तो रास्ते और मुश्किल नज़र आए इन्हें. ख़ुद ओबामा ने एक और वाक़ि’आ बताया है, ‘बात 1999 की है. मैंने पहली बार तब कांग्रेस (अमेरिकी संसद) का चुनाव लड़ा था. मगर ‘नस्ली-बंटवारा’ इतना ज़्यादा हुआ कि मुझे हार का सामना करना पड़ा. जबकि तब तक मैं लंबे समय से राज्य की विधानसभा का सदस्य रह चुका था. उस हार ने मुझे हिलाकर रख दिया. मैं तब 40 साल का हो चुका था. अपना बहुत-सा वक़्त मैंने ऐसे काम में लगाया था, जिसके नतीज़े निकलते नहीं दिख रहे थे. मेरा दिमाग़ बुरी तरह उलझ गया था. उस वक़्त एक-बारगी तो मैंने यह भी सोच लिया कि क्यूं न इस रास्ते (सियासत) को ही छोड़ दिया जाए. मगर फिर ख़ुद को समझाया कि नहीं, बात सिर्फ़ मेरी कामयाबी-ना-कामयाबी की नहीं है. मेरे मक़सद, मेरे लक्ष्य की है. उसके लिए मुझे काम करते ही जाना है’.

Barack Obama

तो, ओबामा अपने मक़सद के लिए काम करते गए. और मक़सद क्या था? आगे उन्हीं से जानते हैं, ‘मैं संसद में पहुंचने की लगातार कोशिश कर रहा था. मगर कामयाबी मुझसे कोसों दूर थी. इससे पत्नी मिशेल भी हताश होने लगी. जनवरी 2005 तक आते-आते हम दोनों ही लगभग तय कर चुके थे कि एक आख़िरी कोशिश और करते हैं. कामयाब हुए तो ठीक, नहीं तो अब हमेशा के लिए सियासत से दूर हो जाएंगे. लोगों के सेवा करने का कोई दूसरा रास्ता ढूंढेंगे. तब इसी मंशा के मुताबिक, मैंने सीनेट का चुनाव लड़ा. लेकिन इस बार मैं जीत गया. क़रीब 70 फ़ीसद वोट मिले मुझे और मैंने तीन जनवरी 2005 को सीनेट के मेंबर की हैसियत से शपथ ली. इससे मेरा हौसला बढ़ा और मैंने गंभीरता से राष्ट्रपति चुनाव में उतरने का मंसूबा बांध लिया. क्योंकि वही एक ज़रिया था, जिससे होकर मैं आख़िरी तौर पर, अपने मक़सद-ए-ज़िंदगी को हासिल कर सकता था’.

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‘हालांकि, पत्नी मिशेल तैयार नहीं थी कि मैं राष्ट्रपति का चुनाव लड़ूं. पता नहीं क्यों, लेकिन वह डर रही थी. उसने मुझे रोका. तब मैंने उससे सिर्फ़ इतनी ही बात कही थी- मैं ये दावा तो नहीं करता कि आज़ादी और न्याय की लड़ाई के लिए मेरा इस सर्वाेच्च पद पर होना बेहद ज़रूरी है. मैं उस ज़िम्मेदारी से भी नहीं भाग रहा हूं कि ये बड़ा क़दम उठाकर मैं अपने परिवार के ऊपर एक बोझ डालने जा रहा हूं. लेकिन पता नहीं क्यूं मुझे लगता है कि अगर मैं इस मंसूबे में कामयाब रहा, तो मेरी कामयाबी एक बड़ी मिसाल बनेगी. मुझे लगता है, बल्कि मैं जानता हूं कि जिस दिन मैं राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के लिए अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाऊंगा, दुनिया अमेरिका को एक अलग नज़रिए से देखने लगेगी. मैं जानता हूं कि उस दिन से अश्वेत बच्चे, हिस्पैनिक बच्चे या वे बच्चे जो समाज़ी हैसियत में ख़ुद को मा’क़ूल नहीं पाते, अपने आप को अलग तरीके से देखने लगेंगे’.

‘मेरी तरह के तमाम बच्चों को फ़र्श से ‘अर्श तक पहुंचने का रास्ता दिखने लगेगा. उनका क्षितिज ऊपर उठ जाएगा. उनकी संभावना का दायरा बढ़ जाएगा. उनकी उम्मीदों को पंख लग जाएंगे. बस, मेरी मेहनत का यही सिला (इनात) मेरे लिए काफ़ी होगा’. और देखिए न जनाब, बराक हुसैन ओबामा ने दुनिया को एक बार नहीं दो बार दिखाई, दुष्यंत कुमार की लिखी इन लाइनों की सच्चाई, ‘कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीअ’त से उछालो यारो’.

आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.

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