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दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़… 

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जनाब, एक ‘तमस’ (अंधेरा) था उनके सीने में. गहरे तक दबा हुआ. उसमें आहें थीं और कराहें भी. जवान हो चली आंखों के सामने मुल्क को टुकड़ों में बंटते हुए देखने की आहें. उस दौरान और उससे पहले हुए दंगों में हजारों, लाखों चलते-फिरते बेगुनाह जिस्मों के मांस के लोथड़ों में तब्दील होते देखने की कराहें. उस दौर में बेघर, बेज़ार (निराश) हुए लाखों लोगों की आहें. जिन हजारों औरतों की अस्मत लूटकर उन्हें बेजान जिस्म की तरह छोड़ दिया गया या मार-काट दिया गया, उनकी कराहें. ऐसा बहुत कुछ दबा था उनके उस ‘तमस’ में. ये सब दबा रहता शायद. कभी बाहर न आता, अगर उन्होंने मुल्क की आज़ादी के बाद भी उसी तरह के हालात न देखे होते.

ये मई महीने का वाक़िया है. साल 1970 का. तब बंबई शहर के भिवंडी में भीषण दंगे हुए थे. बताते हैं, किसी ने कोई ग़ैर-ज़रूरी बयान दिया था तब. इस बयान को सनसनीखेज़ तरीके से हवा दी किन्हीं रोज़-नामों (अख़बारों) ने. और बस इतने से ही नफ़रत की आग को हवा जा लगी. कुछेक बरस बाद, मई-जून 1984 में, उस दौर की बड़ी मैगज़ीन ‘दिनमान’ ने बताया था, ‘भिवंडी के दंगों में 146 से ज़्यादा लोग मारे गए. यही कोई 2,000 लोग ज़ख़्मी हुए. हजार के करीब घर जला दिए गए. करोड़ों की जायदाद फूंक दी गई. बाद वक़्त, इन दंगों के लिए 800 के आस-पास लोग पकड़े गए. लेकिन उनका कुछ न हुआ, जिनकी वजह से अस्ल में ये हालात बने.’

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कहते हैं, आज़ादी के 25-30 बरस बाद भी इस तरह के हालात देखकर उनके भीतर का दबा ‘तमस’ फिर रोक न सका ख़ुद को. लफ़्ज़ी-चीखों (शाब्दिक-चीख) की शक्ल में बाहर आ निकला. ‘तमस’ के नाम से ही उनका नॉवेल जब लोगों के हाथ में आया तो उसमें दर्ज़ आहें-कराहें हरेक कान में महसूस की गईं. यही नहीं, आगे चलकर साल 1988 में जब बड़े फिल्मकार गोविंद निहलानी ने इस नॉवेल के लफ़्ज-पर-लफ़्ज़ रखकर एक फिल्म बनाई तो लाखों आंखों ने उनके ‘तमस’ की आहों-कराहों को अपने सामने उतरते देखा भी. और इसके बाद तो ये ‘तमस’ अपने अंतस् (भीतर) में समेट रखने वाले उस शख़्स का नाम बच्चों की भी ज़ुबान पर आ चढ़ा, ‘भीष्म साहनी’.

bhisham sahni

भीष्म साहनी. हिन्दुस्तान के बड़े अदीब (साहित्यकार). आज ही की तारीख़ (11 जुलाई 2003) में जिन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा. हालांकि वे पैदा कब हुए. इसका बड़ा दिलचस्प वाक़िया उन्होंने ख़ुद बताया है, अपनी किताब ‘मेरे भाई बलराज’ में. अलबत्ता, उसे जानने पहले इस पर ग़ौर फ़रमा सकते हैं कि हिन्दी फिल्मों के बड़े अदाकार बलराज साहनी इन भीष्म साहब के सगे बड़े भाई होते हैं. उनसे अपने रिश्ते पर रोशनी डालते हुए भीष्म साहनी किताब में लिखते हैं, ‘मैं 1915 में (रावलपिंडी, पंजाब) पैदा हुआ. लेकिन किस तारीख़ और किस महीने में, इस बाबत पिताजी (हरबंस लाल साहनी) और अम्मा (लक्ष्मी देवी) के बीच ही एक-राय न बन पाई. अम्मा बताती थीं कि मैं अपने भाई से पूरे एक बरस और 11 महीने बाद पैदा हुआ. हालांकि पिताजी ने स्कूल में दाख़िले के वक़्त मेरी पैदाइश की तारीख़ 8 अगस्त 1915 लिखवा दी. तब से वही तय पाई गई.’

‘पिताजी एक डायरी रखते थे. उसमें हर किसी की पैदाइश, शादी वग़ैरा की तारीख़ें और लोगों को दिए कर्ज़े का हिसाब-किताब लिखा करते थे. लेकिन दिलचस्प ये रहा कि उस डायरी में मेरी पैदाइश की कोई तारीख़ ही दर्ज़ न थी. इस बात पर भाई अक्सर मुझे छेड़ते रहते. कहते- तू मेरा भाई ही नहीं है. पिताजी तुझे कहीं कूड़े के ढेर से उठाकर लाए हैं. सबूत के तौर पर कहते- देख, मैं कैसा गोरा-चिट्‌टा हूं और तू सांवला-सा. मेरी क़द-काठी देख, कैसी तगड़ी है. और तू सुकड़ा-सा… हम दोनों भाई गुरुकुल में पढ़ने जाया करते थे. वहां की पढ़ाई का भाई पर बड़ा असर हुआ था. सो, एक रोज़ गुरुकुल जाते वक़्त भाई ने मुझसे कहा- सुन, मेरे पीछ़े-पीछे चला कर. मैं तेरा बड़ा भाई हूं और तू मुझसे छोटा. राम और लक्ष्मण कभी इस तरह अगल-बगल नहीं चला करते थे. और सुन, मुझे बलराज कहकर न बुलाया कर. मैं अग्रज हूं तेरा. इसलिए भ्राताजी कहा कर आगे से.’

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‘इस तरह मुझे मज़बूरन भाई के पीछे चलना होता. उन्हें भ्राताजी कहना पड़ता. भले, भ्राताजी बोलने से पहले हमेशा अटक जाता, पर करता भी क्या. हालांकि आगे चलकर मैं पंजाबी ज़बान के मुताबिक उन्हें भापाजी कहने लगा फिर. उस वक़्त हमारे घर जो भी आता, अक्सर हम भाइयों की मुवाज़ना (तुलना) करता. इसमें ज़ाहिरन कमतर मुझे ही बताया जाता. था भी मैं कमतर. भाई बड़े हुक्म-‘उदूल क़िस्म के. नज़्म-ओ-ज़ब्त (अनुशासन) के पाबंद और मैं बे-परवा, आलसी क़िस्म का. वे किसी से डरते न थे और मैं दब्बू-सा ठहरा. इस तरह, हम दोनों के बीच कुछ भी एक सा न था. इस बात से मुझे अक्सर जलन हुआ करती. उनके सामने कमतरी का एहसास होता.

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‘लिहाज़ा, इसी एहसास के असर में शायद, मैंने उन्हीं की तरह बनने की क़ोशिशें शुरू कर दीं. उन्होंने ड्रामों में काम किया. मैंने भी किया. वे तीरंदाज़ी किया करते. मैं भी करने लगा. वे नामी अदीबों (साहित्यकारों) के बीच उठते-बैठते तो मैं भी वैसा ही करता. इस तरह, एक वक़्त मैंने महसूस किया कि भाई के साथ जलन का एहसास जाता रहा मेरा. उनके मुकाबले कमतरी का एहसास भी अब नहीं रहा. बल्कि वे मेरे उस्ताद, मेरे हीरो बन गए. वे मुझ पर मोहब्बतें उड़ेल रहे थे और मैं उनके अज़ीज़ शागिर्द की तरह उनके पीछे हो लिया था. इस नए एहसास ने उनके लिए मोहब्बत को मेरे भीतर एक नई मज़बूती दी थी. अलबत्ता, मुझे लगता है कि मेरे लिए शायद बेहतर होता अगर उनसे कुछ बैर बना रहता मेरा. मैं कम से कम अपनी ज़मीन पर खड़ा होता तब.’

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लेकिन जनाब, भरम में आने की ज़रूरत नहीं. भाई के लिए भीष्म साहब की ये मोहब्बत है, जिसने उनसे यूं कहलवाया. उनका बड़प्पन है ये. वरना, तो अदब और अदाकारी की दुनिया में ज़मीन ऐसी मज़बूत हुई उनकी भी कि किसी से हिलाए न हिले. मसलन- वे क़िस्से-कहानियां लिखते थे. उनमें तमाम आज तक याद की जाती हैं. मिसाल के तौर पर, ‘वांग छू’, ‘अमृतसर आ गया है’, ‘चीफ़ की दावत’, ‘झूमर’, ‘साग-भात’, ‘ओ हरामज़ादे’, वग़ैरा. ड्रामे लिखा करते थे. जैसे- ‘कबीरा खड़ा बाज़ार में’, ‘हानूश’, ‘माधवी’, ‘मुआवज़े’, ‘आलमग़ीर’, आदि. उपन्यासें लिखीं उन्होंने. मसलन- ‘तमस’, ‘झरोखे’, ‘कड़ियां’, ‘बसंती’, ’नीलू, नीलिमा, नीलोफ़र’ जैसे कुछ. फिल्मों में भी उन्होंने काम किया. मिसाल के लिए ‘मोहन जोशी हाज़िर हो’, ‘तमस’, ‘कुमार साहनी क़स्बा’, ‘मिस्टर एंड मिसेज़ अय्यर’ वग़ैरा. साथ ही साथ ‘भूत गाड़ी’ नाम के एक ड्रामे का डायरेक्शन भी किया.

इनमें से उनके किसी भी फ़न से गुज़र जाइए जनाब. हर तरफ़ भीष्म साहनी एक मुकम्मल अदीब, फ़नकार, अदाकार जैसे मुख़्तलिफ़ पहलुओं को अपने आप में समेटे अज़ीम शख़्सियत की तरह नज़र आएंगे. यही वज़ह है कि सिर्फ़ उनका नाम ही नहीं, बल्कि उनके किए तमाम काम और कही बातें भी आज तक लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ पर घर किए हुए हैं. इनमें एक बात तो हमेशा के लिए मौज़ूं साबित होती है. कहा करते थे वे, ‘जो इतिहास को भुला देते हैं, वह उसे दुहराने का अभिशाप भुगतते हैं.’ क्या ग़लत है जनाब? तारीख़ सीखने, सबक लेने के लिए ही तो होती है.

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