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दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…

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जनाब, हिन्दुस्तान में ‘राग दरबारी’ की रचना अब तक दो लोगों ने ही की है. पहले- जिन्हें बादशाह अकबर के दरबार के नौ-रत्नों में एक का दर्ज़ा मिला हुआ था. साल 1500-1586 के बीच हुए थे. हिन्दुस्तानी ध्रुपद गायकी के सबसे बड़े गवैये पंडित रामतनु पांडेय यानी तानसेन. कहते हैं, उन्होंने अपने ‘राजा’ को ख़ुश करने के लिए ‘राग दरबारी’ की रचना की थी. बड़ा ही ख़ूबसूरत राग. अक्सर देर शाम या रात के वक़्त गाया, बजाया जाता है. इसकी ख़ासियतों में जो कुछ चुनिंदा हैं वे यूं कि इसे गंभीर प्रकृति का राग कहा जाता है. इस ‘गंभीरता’ को दिखाने के लिए अक्सर नीचे के सुरों (मंद्र या मध्य सप्तक) में ज़्यादा गाया, बजाया जाता है. वज़नदारी के साथ. असर बढ़ाने के लिए ‘ग़मक’ यानी सुरों को ख़ास तरह से आंदोलित करने, या कहें कि जैसे किसी को हिला-डुलाकर जगाते हैं न, कुछ वैसी ही तकनीक सुरों के साथ भी आजमाई जाती है.

इसके अलावा इस राग की एक और ख़ासियत कही जाती है. यह चिकित्सा-विज्ञान से जुड़ी है. यूं कि ये राग ‘कोमा में पड़े मरीज़ों को भी होश में ले आता’ है. बीते दिनों इसकी एक मिसाल भी सामने आई थी. साल 2018 का वाक़ि’आ है, नवंबर-दिसंबर के महीनों का. बंगाल में कोलकाता के सेठ सुखीलाल करनानी मेमोरियल अस्पताल में एक तज़रबा हुआ था. वहां सात नवंबर को एक 21 साल की लड़की को डेंगू बुखार के इलाज़ के लिए लाया गया. लेकिन इलाज़ के दौरान ही वह कोमा में चली गई. दिमाग़ में खून का थक्का जम गया. तमाम इलाज़ आज़माया गया. पर कोई नतीज़ा न निकला. तब वहां के डॉक्टर संदीप कार ने उसे वॉयलिन पर राग ‘दरबारी कानड़ा’ सुनाया. दिसंबर की बात है ये. डॉक्टर साहब ख़ुद वॉयलिन बजाते हैं और संगीत-चिकित्सा के बारे में जानते हैं. सो, उन्होंने यह नुस्ख़ा आज़मा लिया और बताते हैं कि वह लड़की सच में, कोमा से बाहर आ गई.

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अब यहां ‘दरबारी’ और ‘दरबारी कानड़ा’ के भरम में पड़ने की ज़रूरत नहीं है जनाब. क्योंकि दक्षिण भारत में ‘दरबारी’ को ही थोड़े से बदलाव के साथ ‘दरबारी कानड़ा’ की शक़्ल दी गई है. बहरहाल, अब आते हैं दूसरे वाले ‘राग दरबारी’ पर. शब्दों का ‘राग दरबारी’. ‘सुरों वाले राग दरबारी’ जैसी ख़ासियतें इसमें भी हैं. मसलन- जिस तरह ‘राग दरबारी’ में सुरों पर ‘न्यास’ होता है न, यानी किसी ख़ास सुर पर रुककर उसे स्थापित करने की क्रिया. ठीक वैसे ही, ‘शब्दों वाले राग दरबारी’ में ‘उप-न्यास’ होता है. यानी ‘इंसान के नज़दीक की एक कहानी, एक वाक़ि’आ स्थापित’ किया जाता है. और ‘उप-न्यास’ है तो ‘न्यास’ ख़ुद-ब-ख़ुद ही हो गया. सो, उपन्यास की सूरत वाले इस किस्से को जितनी बार भी पढ़े कोई, हर बार लगेगा कि लिखने वाले ने कहीं-कहीं कुछ मसलों पर ‘बख़ूबी न्यास’ किया है. उन्हें पढ़ने वालों के ज़ेहन में मुक़म्मल तरीके से स्थापित भी किया है.

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‘राग दरबारी’ की तरह ‘शब्दों वाले राग दरबारी’ में भी भरपूर ‘वज़नदारी’ है. इतनी कि इसे पढ़ने वाला कई दिनों तक इसका असर दिल-ओ-दिमाग़ पर लिए घूमता रहे. इसमें ‘राग दरबारी’ के ही जैसी ‘गंभीरता’ भी पूरी है. भले फिर मसले को कहा हल्के-फुल्के तरीके से गया हो. ‘सुरों पर ग़मक देने जैसी तकनीक’ भी दिखती है इस ‘दूसरे राग दरबारी’ में. उसके ज़रिए समाज, व्यवस्था को हिला-डुलाकर, उठाकर खड़े करने की कोशिश हुई है. ‘राग दरबारी’ की तरह ही ‘उप-न्यास राग दरबारी’ भी लोगों को कोमा से बाहर लाने के क़ाबिल हुआ है. बस, एक आज़माइश की देरी है. मनोरंजन का तत्त्व भी दोनों में बराबर है. तिस पर दो दिलचस्प बातें और हैं. पहली- ‘राग दरबारी’ भले ‘राजा’ के मन-बहलाव के लिए बनाया गया, पर उसने ‘मन की रंजकता’ हमेशा से ‘प्रजा’ को ज़्यादा दी है. जबकि, ‘शब्दों वाला राग दरबारी’ तो मूल रूप से लिखा ही ‘प्रजा के लिए’ गया है.

दूसरी दिलचस्प बात- ‘सुरों का राग दरबारी’ जिन ‘तानसेन’ जी ने बनाया, वे ख़ुद ‘दरबारी’ थे. जानते थे कि ‘दरबार’ को ऐसा क्या चाहिए कि जिससे उसका मनोरंजन हो रहे, साथ ही उसकी मार या असर भी वह तगड़ा महसूस किया करे. इसी तरह, ‘शब्दों वाला राग दरबारी’ लिखने वाले साहब भी ख़ुद ‘दरबारी’ यानी ‘सरकारी सिस्टम का हिस्सा’ रहे. उन्हें भी अच्छी तरह पता था ‘इस दरबार’ को वह कौन सी गोली चाहिए, जो जज़्ब करने पर लगे तो खट-मिट्‌ठी सी, लेकिन भीतर जाने पर असर भरपूर करे, कड़वी गोली की तरह. और सबसे ख़ास बात ये कि यह ‘दूसरा राग दरबारी’ लिखने वाले साहब भी तानसेन की तरह की अपने हुनर की दुनिया में रत्नों की तरह गिने जाते हैं. पंडित श्रीलाल शुक्ल जी. हिन्दी अदब के बड़े व्यंग्यकार, उपन्यासकार, कहानीकार. उन्होंने क़रीब 25 किताबें लिखीं. लेकिन अमर रचना तानसेन की तरह ही ‘राग दरबारी’ मानी गई.

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हालांकि, जिस तरह ‘दीपक’ ‘मियां मल्हार’ जैसे राग भी पंडित तानसेन के नज़दीक ही पाए जाते हैं, उसी तरह पंडित श्रीलाल जी की दूसरी रचनाएं भी उनसे दूर नहीं ठहरतीं. जैसे- ‘सूनी घाटी का सूरज’ (1957), ‘अंगद का पांव’ (1958), ‘अज्ञातवास’ (1962), ‘मकान’ (1976), ‘पहला पड़ाव’ (1987), ‘बिश्रामपुर का संत’ (1998), ‘राग विराग’ (2001), ‘ज़हालत के पचास साल’ (2003), ‘ख़बरों की जुगाली’ (2005), वग़ैरा. उनकी रचनाओं का यह सिलसिला आख़िर में तभी थमा, जब पंडित शुक्ल जी जीवन के आख़िरी पड़ाव पर आते-आते बीमार रहने लगे. साल 2008 में उनकी आख़िरी किताब आई, ‘कुछ साहित्य चर्चा भी’. उसी साल वे ‘पद्म-भूषण’ से भी सम्मानित किए गए. हालांकि गिने तो ‘रत्न’ के तौर पर ही गए हमेशा वह. उनकी संगीत से भी मुक़म्मल वाबस्तगी हुई थी, बचपन से ही. इनके पिताजी संगीत का शौक़ रखते थे. उन्हीं से इन्हें भी लगा.

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लखनऊ के नज़दीक अतरौली क़स्बे में रहने और खेती-बाड़ी से बसर करने वाले परिवार में पैदा हुए श्रीलाल शुक्ल जी. तारीख़ थी 31 दिसंबर 1925 की. बताते हैं कि जब ये बीए में पढ़ रहे थे, तभी पिताजी का साया सिर से उठ गया. इसके बाद शादी कर दी गई. माली हालत तो पहले ही पतली थी. ऐसे में, कानून की पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी. मगर इन्होंने न संगीत को छोड़ा, न साहित्य. और इस सबमें अच्छी बात ये हुई कि जीवनसंगिनी गिरिजा देवी भी संगीत, साहित्य से पंडित जी के रिश्ते के रास्ते में नहीं आईं. बल्कि उनके इन रिश्तों को मज़बूत करने में ही मददग़ार बनी रहीं. इसका नतीज़ा ही था कि शायद कि पंडित जी ‘राग दरबारी’ जैसा उपन्यास लिखने का जोख़िम भी आसानी से उठा गए. अरे, जोख़िम ही था. क्योंकि साल 1949 में एक तो बड़ी मुश्क़िल से इन्होंने सरकारी नौकरी पाई. उस पर से ऐसा उपन्यास, जो सीधे सरकारी व्यवस्था पर चोट करे!

सरकारी ओहदे पर रहते ‘राग दारबारी’ जैसे व्यंग्य-उपन्यास लिखने का जोख़िम इस सबके बावज़ूद उठा गए पंडित जी. और पूरी तरह क़ामयाब होकर ऐसे बाहर आए, गोया कि वैतरणी पार कर गए हों. इसका आलम यूं हुआ कि ‘राग दरबारी’ कहें तो लोगों को ‘संगीत वाले’ की जगह वह ‘शब्दों वाला’ याद आता है. और पंडित तानसेन की जगह पंडित श्रीलाल शुक्ल की तस्वीर ज़ेहन में उतरने लगती है. शिवपालगंज क़स्बा दिखने लगता है. रंगनाथ, रुप्पन बाबू, सनीचर, वैद्यजी समेत सभी गंजहे जहां में दौड़ जाते हैं. जोगनथवा याद आ जाता है और उसकी सर्फरी बोली ‘मर्फले गर्फले सर्फाले गर्फोली चर्फलानेवाले’ भी. ख़्याल आते ही पेट में गुदगुदी सी होने लगती है. भारत के ग्रामीण क्षेत्रों का वह ‘विकास’ भी दिख जाता है, जो वहां तक पहुंचता नहीं.

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हिन्दुस्तान के अंदरूनी गांवों में होकर आए कोई. पंडित श्रीलाल जी ने ‘राग दरबारी’ में जो, जितनी भी तस्वीरें खींची हैं न, सब आज भी उसी सूरत में दिख जाएंगी. ऐसा शाहकार कर गए हैं वह. जनाब, पंडित तानसेन को ‘राग दरबारी’ को सूरत देने में कितना वक़्त लगा, यह तो किसी को पता नहीं, पर ऐसा बहुत से लोग बताया करते हैं पंडित श्रीलाल जी को उनका ‘राग दरबारी’ लिखने में तीन साल लगे थे. साल 1964 से 1967 तक. ऐसे बड़े काम होने में वक़्त लगा ही करता है. लेकिन जब ये हो जाते हैं न, तो वे वक़्त से परे जाकर कहीं ठहर जाया करते हैं. ठीक उसी तरह, जैसे ‘राग दरबारी’ ठहरा हुआ है. यूं कि किताब वह नज़दीक हो न हो, नाम सुनते ही शब्द-शब्द, चित्र-चित्र, किरदार-अदाकार, सब निग़ाहों के सामने से गुज़र जाते हैं. वैसे ही जैसे संगीत से वाक़िफ़ियत रखने वालों के कानों में ‘राग दरबारी’ का नाम सुनते ही उसके सुर गूंजने लगते हैं.

कितना बेहतर होता कि ‘राग दरबारी’ के सुरों को कोई पंडित श्रीलाल जी के कानों में भी उस वक़्त डाल देता, जब वे गंभीर बीमार थे. लेकिन हो नहीं सका. आज की ही तारीख़ थी जनाब, 28 अक्टूबर की. साल 2011 का था, जब पंडित श्रीलाल जी दुनिया से रुख़्सत हो गए. हालांकि, वे अपने पीछे भरा-पूरा परिवार छोड़ गए हैं, जो हर पढ़ने-लिखने वालों का हमराह, हमसाया बना हुआ है. लिखत-पढ़त का परिवार, क़िस्से-कहानियों का परिवार, व्यंग्यों-उपन्यासों का परिवार. ये परिवार सालों-साल तक यूं ही आबाद रहने वाला है अभी.

आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.

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