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दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक्ती तौर पर मौजूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज…

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दुनिया में 200 से कुछ ऊपर मुल्क हैं जनाब, जिनकी आबादी 10 करोड़ से नीचे ठहरती है. सिर्फ़ 12 के मुल्क ऐसे हुए अभी, जहां आबादी का आंकड़ा इससे ऊपर है. मतलब बताने का ये कि ज़मीनी सरहदों के अधर में झूलते जिस्मों की इतनी भीड़, बहुतों के लिए बहुत मायने रखती होगी यक़ीनन. लेकिन दुनिया के ‘स्थापित’ हुक्मरानों के लिए यह भीड़ सिर्फ़ आंकड़ा है शायद. अपनी ज़मीन, अपने आसमान, अपने आब (पानी) ओ अपनी हवा से कटे, जड़ों से उखड़े कमज़ोर ‘विस्थापित’ लोगों का आंकड़ा…,10 करोड़. इन विस्थापितों को स्थापित लोगों ने एक नाम दिया है ‘शरणार्थी’. यानी वह जो किसी वज़ा से अपने मुल्क की सरहद छोड़ आया और दूसरे में शरण मांगता है. आसरा चाहता है. इन शरणार्थियों के लिए एक दिन (दिवस) भी मुक़र्रर किया गया है, 20 जून का. ताकि दुनियाभर के लोग कम से कम इस एक दिन तो इनके बारे में बात करें, इनकी सुध लें.

हालांकि ये बात दीगर है कि शरणार्थियों की ज़िंदगी में ‘दिन’ ब-मुश्किल ही आया करते हैं. रातें बहुत लंबी और स्याह हुआ करती हैं अलबत्ता. और ये कोई आज की बात नहीं है. तारीख़ गवाह है कि दुनिया में जब भी कोई ताक़त ‘स्थापित’ हुई, उसने कमज़ोर को ‘विस्थापित’ करने की कोशिश की. अपने मुख़ालिफ़ (विरोधी) को रास्ते से हटाने की कोशिश की. सिलसिला तो यक़ीनी तौर पर पहले से चलता आया होगा लेकिन तारीख़ी-किताबों में ये 1492 के आस-पास से दर्ज़ पाया जाता है. उस वक़्त यूरोप में कैथोलिक ईसाइयत ‘स्थापित’ ताक़त हुआ करती थी. लिहाज़ा स्पेन में उसके ‘मठों’ से उस साल मार्च के महीने में एक फ़रमान जारी किया गया. इसके तहत यहूदियों से कहा गया कि वे या तो ईसाई बन जाएं या फिर मुल्क से बाहर कर दिया जाएगा उन्हें. और बताते हैं कि इसी फ़रमान के तहत लगभग एक लाख यहूदियों को मुल्क से अगले महीनों में खदेड़ा भी गया.

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बताते हैं कि कैथोलिक ईसाइयों के भीतर ही कुछ बड़ी सोच वाले लोग इस तरह के रवैयों से आजिज़ आ रहे थे. जर्मनी के मार्टिन लूथर का नाम इनमें सबसे आगे हुआ, जिन्होंने 1517 में अपना अलग रास्ता अख़्तियार कर लिया. उनकी सोच से वाबस्ता होने वालों की तादाद भी तेजी से बढ़ी और इन लोगों को नाम दे दिया गया ‘प्रोटेस्टेंट’ यानी मुख़ालफ़त करने वाले. सो, अब टकराव ईसाइयत की इन शाख़ों के बीच भी होने लगा. फ्रांस में 1562 के आस-पास बड़े पैमाने पर इनके बीच मज़हबी फ़सादात हुए. तब फ्रांस के राजा चौथे-हेनरी ने कानून लागू कर सभी ‘प्रोटेस्टेंट’ को अपने मज़हबी तौर-तरीके अपनाने की इजाज़त दे दी. लेकिन 1685 में राजा 14वें-लुई ने इस कानून को रद्द कर दिया. इसके बाद अगले कुछ सालों में क़रीब चार लाख प्रोटेस्टेंट को फ्रांस से खदेड़ा गया. फ्रांस और आस-पास के इलाकों में उस वक़्त प्रोटेस्टेंट को ‘ह्यूगनॉ’ कहा जाता था.

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इस तरह का सिलसिला चलता रहा फिर. फ्रांस में जब 1789 की क्रांति के बाद नेपोलियन बोनापार्ट राजा बने तब भी बड़े पैमाने पर मुख़्तलिफ़ राय रखने वालों को मुल्क से बाहर खदेड़ा गया. उन्हें मुल्क छोड़ने के लिए मजबूर किया गया. लाखों लोगों ने तब ब्रिटेन, जर्मनी, ऑस्ट्रिया वग़ैरा में जाकर आसरा लिया. और एक वक़्त तो ऐसा आया कि ब्रिटेन को 1793 के जनवरी महीने में एक कानून लाना पड़ा ‘एलियंस एक्ट’. इसके ज़रिए ब्रिटेन पहुंचने वाले विस्थापितों पर तमाम पाबंदियां लगा दी गईं. हालांकि कुछ महीनों में ही यह कानूनी पाबंदी हटा ली गई. पर ये पहली नज़ीर बन गया कि सरकारें कानून के मार्फ़त उनके मुल्क में आसरा मांगने वालों को रोक सकती हैं. इस वक़्त तक पूर्वी यूरोप के रूस जैसे देशों में यहूदियों की बस्तियां ख़ासी आबाद थीं. पर मार्च 1881 में जब दूसरे-जार अलेक्जेंडर की हत्या हुई तो उन पर बड़ी आफ़त आन पड़ी जैसे.

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कहते हैं, उस हादसे के बाद अगले कुछ सालों में क़रीब दो लाख यहूदियों को रूस से और उसके असर वाले इलाकों से खदेड़ा गया. ये सब इंग्लैंड, अमेरिका की तरफ़ रवाना हुए. किसी ने उन्हें आसरा दिया और कहीं नहीं भी मिला. इंग्लैंड में तो एक बार फिर वहां की सरकार को ‘एलियंस एक्ट’ लागू करना पड़ा, साल 1905 में. ये कानून फिर हटा नहीं. बल्कि आने वाले सालों में और सख़्त होता गया, ब्रिटेन में आकर शरण मांगने वालों के लिए. इसके बाद तो अगली पूरी सदी में मानो दुनिया किसी दोज़ख़ (नर्क) में तब्दील हो गई हो, उनके लिए जो कमज़ोर साबित हुए. इस बीच दो विश्व-युद्ध (पहला 1914-1918, दूसरा 1939-1945 तक) हुए. रूस में साम्यवादी क्रांति (1917) हुई. स्पेन में गृह युद्ध (1936-1949) हुआ. यहूदियों का क़त्ल-ए-आम (1941-1945) हुआ. जर्मनी का बंटवारा (1945) हुआ. हिन्दुस्तान टुकड़ों में (1947) बंटा.

फिलिस्तीन को बांटा गया. चीन में साम्यवादी शासन (1949) आया. कोरियाई मुल्कों के बीच जंग (1950-1953) हुई. हंगरी में क्रांति (1956) हुई. चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा (1959) कर लिया. भारत-पाकिस्तान की (1971) की जंग हुई. इसके साथ ही और भी न जाने कितना कुछ हुआ, जिसे तारीख़ भुला न सकेगी.
इन तमाम हादसों में करोड़ों की तादाद में लोग अपनी जड़ों से उखड़े. मिसाल के तौर पर भारत के बंटवारे के वक़्त ही क़रीब 18 करोड़ लोगों को ज़मीन छोड़नी पड़ी. महीनों, सालों बाद वे कहीं दूसरी जगह बस पाए. रूस की क्रांति और उसके बाद के हालात में 1917 से 1921 के बीच 15 लाख से अधिक लोगों को वहां से विस्थापित होना पड़ा. चीन पर जब साम्यवादी शासन आया तो क़रीब 20 लाख लोगों को वहां से निकलकर ताईवान और हॉन्गकॉन्ग में आसरा लेना पड़ा. दूसरे विश्व-युद्ध में जब जर्मनी हार गया तो दुनिया के ताक़तवर मुल्कों ने अपने यहां शरण पाने वाली जर्मन आबादी को खदेड़ा. उसे ज़बर्दस्ती ले जाकर वापस जर्मनी में बसने पर मज़बूर कर दिया. इस तरह के सिलसिले इसके बाद भी यूं ही जारी रहे. मसलन- म्यांमार से खदेड़े गए रोहिंग्या, जो अब तक तमाम मुल्कों में बस, अपने लिए स्थायी आसरे की बाट ही जोह रहे हैं, लेकिन…

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दोज़ख़ से हालात में टाट-फटि्टयों के तंबुओं में रहा करते हैं ये विस्थापित. बताते हैं, हर साल इन तंबुओं में 15 लाख के क़रीब बच्चों की पैदाइश होती है. लेकिन ये बच्चे इस धरती पर बस, ख़ुदा के बंदे ही होते हैं, मुल्क के इज़्ज़तदार बाशिंदे नहीं. ये बच्चे ‘अनाथ’ नहीं क्योंकि इनके सिर पर मां-बाप का साया है. मगर ये ‘सनाथ’ भी नहीं क्योंकि दुनिया के किसी मुल्क की सरकार इनकी सुध लेने को तैयार नहीं, आसानी से. इनकी तालीम, इनकी सेहत, सब ऊपर के वाले भरोसे होती है. और कुछ हद तक संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था के भरोसे, जो सालाना क़रीब 70,000 करोड़ रुपए इन लोगों पर ख़र्च करती है. ताकि कम से कम इनका ख़ाना-ख़र्च चलता रहे ठीक तरह.

इसीलिए कभी-कभी इन लोगों के बारे में सोचो तो एक फिल्म का नग़्मा याद आ जाता है. उस फिल्म का नाम ‘रिफ्यूज़ी’ हुआ. हिन्दी में बनी थी, साल 2000 में. और नग़्मा यूं था, ‘पंछी, नदिया, पवन के झोंके, कोई सरहद न इन्हें रोके। सरहद इंसानों के लिए है, सोचो तुमने और मैंने क्या पाया इंसां हो के?’ सच ही है. हर तरक़्क़ीपसंद इंसान के लिए सोचने की बात तो है ये.

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