दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़…
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जनाब, स्टीव जॉब्स की ज़िंदगी से जुड़ी नज़ीरों का सिलसिला चुनिंदा लफ़्ज़ों में समेटना मुमकिन न हुआ. होता भी कैसे? ख़ुद पढ़कर देखते और समझते जाइए…
चौथी मिसाल है, साल 1973-74 की. कैलीग्राफी का कोर्स बहुत लंबा नहीं है. जल्द ख़त्म हो जाता है. अब जॉब्स को कुछ सूझ नहीं रहा है कि आगे क्या और कैसे करना है. मन बेचैन है. इसी बीच, ‘हरे कृष्ण मंदिर’ के संपर्क में भी आ चुके हैं. अपने शहर से सात मील दूर पैदल चलकर हर इतवार को इस मंदिर में जाया करते हैं. यहां कम से कम उस दिन एक वक़्त भरपेट भोजन मिल जाया करता है. साथ में मन को सुकून भी. शायद, यहीं से उन्हें हिन्दुस्तान के आध्यात्म की गहराई का कुछ भान हुआ है. लिहाज़ा, पूरी तरह से यह तज़रबा करने के लिए वे हिन्दुस्तान रवाना हो जाते हैं. इधर-उधर काम करने के बाद कुछ पैसे जुटाकर वे हिन्दुस्तान आ गए हैं. उत्तराखंड की पहाड़ियों में प्रकृति को आत्मसात् कर रहे हैं. बाबाओं, महात्माओं के साथ साधना कर रहे हैं. जीवन का मक़सद समझने की कोशिश में हैं. उसके आदि, मध्य और अंत की गुत्थी सुलझा रहे हैं.
पांचवीं मिसाल. साल 1974-75. हिन्दुस्तान से मूल-मंत्र सीखकर अमेरिका लौटे हैं कि ‘अंतरात्मा की आवाज़ जिस तरफ़ ले जाए बस, उसी ओर चलते जाना है’. यानी दिशा मिल गई है. फ़ैसला भी कर लिया है कि दिल-ओ-दिमाग़ जिस कंप्यूटर-तकनीक की दुनिया में रमता है, उसी में भविष्य तलाशना, बनाना है. लिहाज़ा, ‘एचपी’ में काम के ज़माने में जिन स्टीव वज़नैक से दोस्ती हुई, उन्हें फिर अपना हमराह बना लिया है. पिताजी के गैराज में दोनों ने मिलकर काम शुरू कर दिया है. कुछ अलहदा क़िस्म का कंप्यूटर बनाने का काम. ऐसा, जिसे लोग निजी तौर पर इस्तेमाल कर सकें. क्योंकि अब तक इस क़िस्म के कंप्यूटर बाज़ार में मौज़ूद नहीं हैं. बिजनेस मशीनें ही हैं. जॉब्स ने होमब्र्यू कंप्यूटर क्लब से कुछ मदद ली है. अपनी कुछ निजी चीज़ें बेचकर पैसे जुटा लिए हैं. यही कोई 1,350 डॉलर. यानी हिन्दुस्तानी रुपए में 1.07 लाख के क़रीब. काम शुरू हो गया है.
छठवीं मिसाल. साल 1983-84 का. जॉब्स ने पिताजी के गैराज़ से जो सिलसिला शुरू किया, वह अब ‘एपल’ के नाम से बड़ी कंपनी के कारोबार में तब्दील हो चुका है. इस कंपनी के कंप्यूटर-उत्पाद बेहतर बनाने के लिए जॉब्स लगातार मेहनत कर रहे हैं. अब ऐसा कंप्यूटर बना रहे हैं, जिसे बाहरी उपकरण (माउस) की मदद चलाया जा सके. साथ ही उसके भीतर ऐसा कोई बंदोबस्त किया जा सके, जिसकी मदद से सुंदर लिखाई का इंतज़ाम हो जाए. यहां जॉब्स ने कॉलेज के दिनों में सीखे अपने ‘कैलीग्राफी’ के हुनर को ख़ूबसूरती के साथ इस्तेमाल कर लिया है. ऐसे कि कंप्यूटर, लैपटॉप, फोन पर लिखते वक़्त लोग आज भी उनके उस हुनर की तारीफ़ें किया करते हैं. अगर उन्होंने वह सीखा नहीं होता और अपने सीखे हुए हुनर से कंप्यूटर पर लिखाई का बंदोबस्त न किया होता, तो शायद आज कंप्यूटर जैसे उपकरणों में इस तरह की टाइपिंग का इंतज़ाम न होता.
सातवीं मिसाल. साल 1985. जिस कंपनी को स्टीव जॉब्स ने खड़ा किया है, उसी ने उन्हें निकाल दिया है. जॉन सुली नाम के जिस शख़्स को जॉब्स कंपनी का मुखिया बनाकर लाए, वही कंपनी से उनके बाहर जाने की वज़ह बने हैं. इस मौके पर अलबत्ता, कंपनी ने जॉब्स को इतना पैसा दिया है कि वे चाहें तो आगे की पूरी ज़िंदगी बिना कुछ किए आराम से बिताएं. लेकिन जॉब्स ने अब भी अपनी ‘अंतरात्मा की आवाज़’ के साथ जाने का ‘अलग रास्ता’ चुना है. कंप्यूटर-तकनीक से जुड़े नए उत्पादों के साथ नई कंपनी ‘नेक्स्ट’ खड़ी कर ली है. साथ ही कंप्यूटर-एनीमेशन की तकनीक के साथ एक दूसरी भी, जिसका नाम है ‘पिक्सर’. और दस साल, महज दस साल में उन्होंने दोनों कंपनियों को बाज़ार के भीतर मुकाबले में लाकर खड़ा कर दिया है. उधर, एपल की माली हालत ख़राब है. वह फिर स्टीव जॉब्स को साथ जोड़ने के बारे में सोच रही है.
इसके बाद कहानी वह जनाब, जिससे दास्तान शुरू हुई. फिर अगली मिसाल साल 2004 की. वह वक़्त जब जॉब्स को पता चला है कि उन्हें एक लाइलाज़ क़िस्म का कैंसर है. डॉक्टरों ने जॉब्स से कह दिया है कि आपके पास वक़्त नहीं है. आप अपने जो काम समेटना चाहते हैं, समेट लें. यह सुनकर कोई और होता तो शायद टूट जाता. हार मान जाता. लेकिन जॉब्स यहां से अब अगले सात साल तक ‘हर दिन को आख़िरी मानकर’ दोगुनी, तीन गुनी रफ़्तार से काम कर रहे हैं. ‘अलग सोच’ है, इसलिए ख़ुद को ऊर्जावान बनाए रखने का तरीका भी उन्होंने अलहदा ही चुना है. रोज़ सुबह, शाम शीशे के सामने खड़े होकर ख़ुद से सवाल करते हैं, ‘मैं आज जो करने जा रहा हूं या किया है, क्या वह ऐसा काम है, जिसे मैं अपने आख़िरी वक़्त में करना चाहता?’. ज़वाब, कुछ दो-चार दिनों तक ‘न’ में मिलता तो तुरंत रास्ता बदलते और ‘सबसे अहम’ काम करते.
इस तरह, ऐसी सोच, ऐसे तेवर और अंतरात्मा की आवाज़ के साथ चलते-बढ़ते स्टीव जॉब्स अपनी कंपनी को लेकर उस मक़ाम पर आ जाते हैं, जहां दोनों अपने आप में दुनिया के लिए नज़ीर होते हैं. हालांकि, 25 अगस्त 2011 को एक मक़ाम वह भी आता है, जब जॉब्स के साथ उनकी कंपनी और उनके मक़सद के सफ़र का सिलसिला थम जाता है. सेहत अब साथ नहीं दे रही है. बीमारी बिगड़ती जा रही है. इसलिए, एक रोज़ पहले ही कंपनी से इस्तीफ़ा देकर आज, तमाम ज़िम्मेदारियां दूसरे लोगों को सौंप दी हैं. गोया, अपने हाथ से अपनी ज़िंदगी किसी को सौंप दी हो. ज़िस्म बस, कुछ वक़्त और सांस लेते रहने के लिए ही रह गया हो. अलबत्ता, जीने के मक़सद के बिना, वे सांसें भी बहुत दिनों कहां चलने वाली हैं. ठहर गईं एक दिन, हमेशा के लिए. साल 2011 के ही अक्टूबर महीने की पांच तारीख़ थी वह. जनाब, स्टीव जॉब की क़िस्म के लोग जो चंद होते हैं , उनके लिए उनका ‘मक़सद ही ज़िंदगी हुआ करती है और उसका ठहर जाना, मौत’.
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FIRST PUBLISHED : August 25, 2022, 12:44 IST
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