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आज हम बात करेंगे उन दो चेहरों की जिनके सब्र और सही समय पर सही चाल चलने की राजनीति से महाराष्ट्र में शिवसेना के नेतृत्व वाली महाविकास अघाडी सरकार गिरने की कगार पर आ खड़ी हुई है. वैसे ढाई सालों में बदलते घटनाक्रम ने महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार की नींव को हिला कर रख तो दिया था लेकिन इसमें शामिल सभी दलों को भरोसा था कि पांच साल तो कट ही जाएंगे. कांग्रेस सत्ता में भागीदारी पा कर ही खुश थी तो एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार के हाथों में सभी इक्के थे. लेकिन मुश्किल तो शिवसेना की थी. गठबंधन चलाए या फिर हिंदुत्व ब्रांड से पीछे हटती जाए. वैसे शिव सेना आलाकमान ने तो गठबंधन का दामन कस कर थाम तो लिया लेकिन उनके भीतर मंथन चलता रहा था.

शिवसेना की चल रही राजनीति से नाराज तो पार्टी के कई नेता और विधायक थे. लेकिन कोई खुल कर सामने नहीं आ रहा था. सबको मौके का इंतजार था, मौका मिला राज्यसभा और विधान परिषद के चुनावों में. जब बीजेपी ने एक राज्यसभा और एक विधान परिषद की सीट जीत ली और वो भी तब जब उनके पास नंबर ही नहीं थे. यहीं से शिव सेना का वो चेहरा सामने आया जो अरसे से अपनी अनदेखी से नाराज था इसलिए हम पहले चर्चा करेंगे एकनाथ शिंदे की.

एकनाथ शिंदे ने बजाया विद्रोह का बिगुल

एकनाथ शिंदे एक मजबूत नेता रहे हैं और पार्टी मे उनकी तूती भी बोलती है. जब से सरकार बनी और उन्हें महत्वपूर्ण नगर विकास मंत्रालय का प्रभार मिला तब से वो नाराज चल रहे थे. उनका आरोप था कि उनके मंत्रालय में शिवसेना आलाकमान का हस्तक्षेप बहुत ज्यादा था इसलिए वहां के अधिकारी कभी कोई फाइल उनके पास लेकर आते ही नहीं थे. उनके और आलाकमान के बीच संवाद बंद हो चुका था. एकनाथ शिंदे की नाराजगी इस बात को लेकर भी थी कि पार्टी के भीतर जितने नेता उनका विरोध करते थे उनको आलाकमान तवज्जो देता था.

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सूत्रों के मुताबिक एकनाथ शिंदे को संजय रावत की बयानबाजी भी रास नहीं आ रही थी. उन्हें लगता था कि संजय रावत शरद पवार के करीबी हैं. इसलिए विधान परिषद और राज्य सभा चुनावों के नतीजों में अपनी ताकत दिखाने बाद अपने दो दर्जन विधायकों के साथ शिंदे सूरत जा पहुंचे.

दलबदल विरोधी कानून के मुताबिक एक पार्टी को तोड़ने के लिए दो तिहाई बहुमत जरुरी होता है. यानि शिवसेना से अलग हो कर एक खेमा बनाने के लिए एकनाथ शिंदे को 37 विधायकों की जरूरत है. उनके पास विधायकों की संख्या धीरे धीरे बढ़ रही है.

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राज्य सभा और विधान परिषद में सत्ता पक्ष ने मुंह की खाई

विधान परिषद में बीजेपी को मिली 5वीं सीट ने जता दिया कि एमवीए में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा. नहीं तो जिस पार्टी को एक भी वोट नहीं हो उसे 28 वोट किसने दे दिए. शिवसेना के विधायकों में भी असंतोष फैला हुआ था. सूत्र बताते हैं कि अगला चुनाव तीनों पार्टियां साथ मिल कर लड़ती तो न तो उम्मीदवारी की गारंटी थी और न ही जीत की. टिकटों का बंटवारा टेढ़ी खीर था. पश्चिमी महाराष्ट्र और मराठवाड़ा मे शिवसेना की ज्यादातर सीटों पर लड़ाई एनसीपी से होती रही है.

अगर इन इलाकों में शिवसेना 22 सीटों पर चुनाव लड़ती है जिसमे 15 एनसीपी के खिलाफ लड़ती आयी है. विधानसभा में 68 सीटों पर शिवसेना ने एनसीपी के खिलाफ लड़ी थी इसलिए आने वाले चुनावों में टिकटों का बंटवारा मुश्किल था. न तो कार्यकर्ता और न ही नेता संतुष्ट नजर आ रहे थे. शिव सैनिक और विधायक भी संतुष्ट नहीं थे. सरकार में होते हुए भी उनके काम नहीं हुए.

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एमवीए में छोटे-छोटे दलों को शामिल कर मंत्री बना दिया और निर्दलियों को भी मंत्री बनाया. शिवसेना के कोटे के सिर्फ 12 मंत्री बनने थे जिसमें से उन्हें अपने कोटे से 3 निर्दलियों को मंत्री पद देना पड़ा. सूत्रों के मुताबिक विधान परिषद चुनावों में 6 सीट एमवीए जीत सकती थी. क्योंकि बीजपी के पास 5वीं सीट के लिए एक भी वोट नहीं था. कांग्रेस इस सीट की मांग कर रही थी. इससे शिव सेना के विधायक नाराज हो गए. यही झगड़ा था कि बीजेपी को 28 वोट के साथ सीट भी मिल गई. राज्य सभा में महाराष्ट्र विकास अगाड़ी में कोई समन्वय नहीं था. संख्या बल होते हुए भी हारे और यहीं से खेल बदला.
देवेन्द्र फण्डवीस ताकतवर बनके उभरे

दूसरा नाम सबसे मजबूती से उभरा वो है महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा नेता विपक्ष देवेन्द्र फण्डवीस का. ढाई साल पहले रात को शपथ लेकर सुबह इस्तीफा देने वाले फण्डवीस उसके बाद संभल गए थे. पिछले झटके के बाद लेकिन हर मोर्चे पर अगाड़ी की कलई खोलने से पीछे नहीं हट रहे थे. ढाई साल देवेन्द्र फण्डवीस खामोश रहे और अब विधान परिषद और राज्य सभा मे जीत के बाद राज्य के नए चाणक्य के रुप में उभरे हैं.

बीजेपी अभी सीधे सीधे सरकार गिराने में भागीदार होकर खलनायक नहीं बनना चाहती. इसलिए पूरे घटनाक्रम पर आलाकमान पैनी निगाह बनाए रखे था और देवेन्द्र फडनवीस ने भी दिल्ली आ कर आलाकमान से रणनीति पर चर्चा की.

सूत्रों के मुताबिक अब एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में जिन विधायकों ने सूरत में डेरा डाला है वो ही विधानसभा में सरकार से बहुमत साबित करने की मांग कर सकते हैं. राष्ट्रपति शासन और चुनाव एक विक्लप है लेकिन अभी ढाई साल बचे हैं. विधानसभा के इसलिए अभी किसी ने पत्ते नहीं खोले हैं. नाना पटोले के इस्तीफे के बाद अभी विधानसभा में कोई स्पीकर नहीं है. डिप्टी स्पीकर के हाथ में ही चाबी होगी और एनसीपी के डिप्टी स्पीकर पार्टी की राजनीति में किसने करीबी है ये सभी दल जानते हैं.

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महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावो में अभी 2 साल से ज्यादा का वक्त बचा है इसलिए ज्यादतर विधायक फिलहार मध्यावधि चुनावों के मूड में नहीं हैं लेकिन वो कहते है ना कि दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है. इसलिए बीजेपी भी संभल संभल कर कदम रख रही है और वेट एंड वॉच की नीति अपनायी हुई है.

Tags: Chief Minister Uddhav Thackeray, Devendra Fadnavis

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