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मुझे हिंदी बोलने में दिक़्क़त होती है और न भोजपुरी आती है, न कैथी लिपि ही, जिसमें सारे दस्तावेज़ हैं. इसे जानने वाले सहयोगी चाहिए.

– महात्मा गांधी की डायरी, 14 अप्रैल 1917, चंपारण के रास्ते में

कैथी जानने वाले केवल बापू को नहीं चाहिए थे, आज 105 साल बाद हमें भी उनकी जरूरत है.

बाबू की जंग खाई टुटहा झांपी में पुराने दस्तावेज भरे हुए थे ….. कचहरी के कागजात. गाँव के किसी भी मुकदमेबाज किसान के पास यह जखीरा मिल सकता है — मलिका विक्टोरिया की छापी वाले स्टाम्प पेपर पर जमीन की खरीद-बिक्री का कबाला, किंग एडवर्ड सप्तम के हवाले से हरवाही दस्तावेज पर मजदूरों के अंगूठे, जॉर्ज पंचम के स्टाम्प के साथ सूदभरना में गिरवी प्रॉपर्टी के कागज, जॉर्ज (छठे) वाले स्टाम्प पेपर पर कचहरी में दायर टाइटल सूट और अशोक स्तम्भ के साथ जमीन का बंटवारा.

विरासत में मिले इन दस्तावेजों का ओर-छोर पाना मुश्किल है. आधे से ज्यादा दस्तावेज कैथी में हैं. अंग्रेजी और हिन्दी हम समझ सकते हैं. उर्दू के जानकार भी आसानी से मिल जाते हैं. पर कैथी लिपि बांचना टेढ़ी खीर है.

करीब सौ साल तक बिहार में कचहरी का कामकाज कैथी में चलता रहा. अभी ’60 के दशक तक यह सिलसिला जारी था. मेरे ही खुद के पास 1965 तक के कैथी के कागजात हैं. सबसे पुराना तो 904 का है! पर विलुप्त होने की कगार पर खड़ी इस लिपि को पढ़ने वाले अब चिराग लेकर ढूँढने पड़ते हैं.

क्या है कैथी?

खगड़िया में मित्र संजीव तुलस्यान के पास प्रॉपर्टी के पुश्तैनी दस्तावेजों का जखीरा है. वे आसान भाषा में समझाते हैं: “कैथी असल में उर्दू के भरपूर शब्दों के साथ लपटौआ ढंग से लिखी हिंदी है.“ लपटौआ मतलब जिसमें एक अक्षर से दूसरा अक्षर लिपटा हुआ हो, जैसा कि अंग्रेजी लिखने में हम करते हैं.

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देवनागरी में अक्षरों के ऊपर की तरफ लकीर (शिरोरेखा) डालते हैं, कैथी लिखने में उस लकीर को छोड़ देते हैं. कैथी घसीट कर लिखी जाती है. इसे लिखने में देवनागरी के मुकाबले वक्त कम लगता है. शायद यही वजह है कि कोर्ट के कातिबों और मुंशियों में यह लोकप्रिय हुआ.

कैथी शब्द कायस्थ से निकला है. भाषाविद जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन के मुताबिक कायस्थों ने कैथी लिपि कचहरी के काम लिए गढ़ी थी. राजा-महाराजाओं के समय से ही कायस्थ राज-काज से जुड़े थे. नवाबी हुकूमत में यह परवान चढ़ा और ब्रिटिश काल में तो उनके बिना तो काम ही नहीं चलता था. अकाउंट और सरकारी लिखा-पढ़ी के काम करने की वजह से उन्हे मुंशी की उपाधि मिली थी.

धीरे-धीरे बिहार और पूर्वी यूपी में कायस्थों के अलावा दूसरे लोग भी कैथी का इस्तेमाल करने लगे. पूर्व आईपीएस अफसर उदय सहाय की किताब, ‘कायस्थ, एन इनसाइक्लोपीडिया ऑफ अनटोल्ड स्टोरीज’ में तो कैथी पर एक पूरा चैप्टर ही है.

भिखारी ठाकुर कैथी में

अगर आज भी आप बिहार या झारखंड को अच्छी तरह समझना चाहें या कोई गंभीर शोध करना हो तो कैथी के बिना कल्याण नहीं. 1857 के विद्रोह के नायक बाबू वीर कुँवर सिंह के हुक्मनामे और दूसरे कागजात कैथी में हैं. भोजपुरी के ब्रेख्त, बिदेसिया लिखने वाले भिखारी ठाकुर की हस्तलिखित रचनाएं भी कैथी में ही हैं.

कैथी एक्सपर्ट भैरव लाल दास बताते हैं कि 1917 में गांधी जी को चंपारण लाने वाले किसान राजकुमार शुक्ल की डायरी मूल रूप से कैथी में थी. उसे अगर वे देवनागरी में ट्रांसलिटरेट नहीं करते तो आजादी की लड़ाई की यह अमर धरोहर गुमनामी के अंधेरे में ही रह जाती. सती बेहुला से विषहरी के संघर्ष की अंगिका लोककाव्य मूल रूप में पढ़नी हो तो उसके लिए कैथी जरूरी है.

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प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद के जीवन में तांक-झांक करना चाहें तो याद रखें कि वे अपनी पत्नी को कैथी में चिट्ठी लिखते थे. कर्ण कायस्थ की मूल पंजी देखनी हो तो कैथी जरूरी है. कई कायस्थ परिवारों में अभी भी शादी-ब्याह की लिखा-पढ़ी का रोका कैथी में ही लिखा जाता है. छत्तीसगढ़ के पूर्व डीजीपी विश्वरंजन बताते हैं, “मेरी फैमिली ट्री कैथी में थी. मुझे उसे हिन्दी में लिखवाना पड़ा.“ उनकी वंशावली एक साहित्यिक धरोहर भी है क्योंकि वे फिराक गोरखपुरी के नाती हैं.

कैथी का कोर्स: शिकागो यूनिवर्सिटी, 1915

शेरशाह सूरी (1486-1545) के सरकारी दस्तावेज और सिक्के कैथी में होते थे. अंग्रेजों ने कलकत्ता में 1850 में जब सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की तो उसकी सील में तीन लिपियां थीं – फारसी, बांग्ला और कैथी. उस जमाने में कैथी के चलन का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि 1854 में नॉर्थ वेस्ट प्रांत के स्कूलों में कैथी के 77 हजार प्राइमर थे और देवनागरी के केवल 25 हजार.

अंग्रेजी ग्रामर की मशहूर किताब लिखने वाले जेसी नेसफील्ड अवध के डायरेक्टर पब्लिक इन्स्ट्रक्शन (डीपीआई) थे. उन्होंने कैथी का भी मानक रूप विकसित करने की कोशिश की. उसके बाद 1880 में कैथी बिहार में सरकारी काम-काज की लिपि बन गई. ग्रियर्सन ने भी 1899 में ‘ए हैन्ड्बुक ऑफ कैथी कैरेक्टर” लिखी.

कैथी हिंदुस्तान से बाहर भी गई. 19वीं और 20वीं सदी में बिहार-यूपी से मारीशस, त्रिनिदाद और सूरीनाम गए गिरमिटिया मजदूर अपने साथ भोजपुरी भाषा और कैथी लिपि भी उन मुल्कों में ले गए. उनमें से कई लोगों के पास कैथी में लिखी रामचरित मानस और हनुमान चालीसा की पांडुलिपियाँ थीं.

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1915 में ब्रिटिश काल में भारत आने वाले मिशनरियों को कैथी सिखाई जाती थी. शिकागो यूनिवर्सिटी में तो इसके लिए बाकायदा पढ़ाई होती थी. आज यह किस्सा भले परिकथा सा लगे, पर जिनके यहाँ बक्से भर-भर के कैथी के दस्तावेज रखे हुए हैं, वे इसके स्वर्णिम इतिहास की ताईद करेंगे.

(अगले सप्ताह: लाखों दस्तावेज, पर पढ़ने वाला कोई नहीं)

ब्लॉगर के बारे में

एनके सिंहवरिष्ठ पत्रकार

चार दशक से पत्रकारिता जगत में सक्रिय. इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक भास्कर में संपादक रहे. समसामयिक विषयों के साथ-साथ देश के सामाजिक ताने-बाने पर लगातार लिखते रहे हैं.

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