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नई दिल्लीः शिवसेना में उठा सियासी गुबार एक तरह से शांत होता दिख रहा है. बागी एकनाथ शिंदे बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना ली है. राज्यपाल ने शिंदे को सीएम और बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस को डिप्टी सीएम की शपथ दिला दी है. उद्धव ठाकरे खेमा खून का घूंट पीकर चुप है. लेकिन ये कहना कि दोनों के बीच ये सियासी लड़ाई खत्म हो गई है, अभी जल्दबाजी होगी. वजह ये कि दोनों गुटों के बीच अब इस बात को लेकर लड़ाई छिड़ सकती है कि असली शिवसेना कौन है और पार्टी के सिंबल ‘तीर-कमान’ पर किसका हक है. इसे लेकर दोनों खेमों के बीच चुनाव आयोग में नई लड़ाई सामने आ सकती है.

मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया जा रहा है कि एकनाथ शिंदे कैंप महाराष्ट्र की सत्ता पर काबिज होने के बाद चुप नहीं बैठेगा और शिवसेना के पार्टी सिंबल तीर-कमान पर अपना दावा करेगा. अगर ऐसा होता है तो उद्धव ठाकरे खेमा भी आसानी से हार नहीं मानेगा और चुनाव आयोग में दोनों के बीच की एक नई रोचक जंग देखने को मिलेगी. एकनाथ शिंदे गुट का ये दावा कि उनके पास शिवसेना के दो-तिहाई से ज्यादा विधायक हैं, चुनाव आयोग में पार्टी सिंबल को लेकर होने वाली इस संभावित लड़ाई को जीतने के लिए पर्याप्त नहीं है.

‘असली शिवसेना’ बनने के लिए विधायकों का बहुमत काफी नहीं

राज्यपाल ने शिंदे सरकार से 2 जुलाई को विधानसभा में बहुमत साबित करने के लिए कहा है. मुंबई के पॉलिटिकल एनालिस्ट संजय जोग ने News18 से कहा कि बहुमत साबित करने के बाद और कानूनी व विधायिका संबंधी अड़चनों को दूर करने के बाद शिंदे गुट चुनाव आयोग में जाकर शिवसेना के सिंबल तीर-कमान पर दावा कर सकता है. लेकिन इसके लिए उसे चुनाव आयोग के नियम-कायदों से चलना होगा. पार्टी के एक नेता ने कहा कि असली शिवसेना होने का दावा करने वाले गुट को सिर्फ विधायकों की संख्या दिखाने से काम नहीं चलेगा. उसे दिखाना होगा कि पार्टी के ज्यादातर पदाधिकारी और सांसद भी उसके साथ हैं.

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संगठन, पदाधिकारी अब भी रहेंगे उद्धव के साथ?

उद्धव ठाकरे के सीएम की कुर्सी से उतरने के बाद पार्टी नेताओं और पदाधिकारियों का कितना समर्थन उनके साथ रहेगा, ये देखने की बात रहेगी. हालांकि शिंदे की बगावत के दौरान शिवसेना की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने खुलकर उद्धव का समर्थन किया था. राष्ट्रीय कार्यकारिणी में शिवसेना के सभी सांसद, विधायक, जिला प्रमुख और वरिष्ठ नेता शामिल रहते हैं. इसके अलावा शिवसेना संगठन में अध्यक्ष के बाद 12 अहम पदों में से शिंदे को छोड़कर बाकी 11 में से किसी नेता ने उद्धव के खिलाफ बागी तेवर नहीं दिखाए थे. शिवसेना सांसदों की बात करें तो बागी एकनाथ शिंदे के बेटे श्रीकांत शिंदे और भावना गवली के अलावा किसी सांसद ने उद्धव का विरोध नहीं किया था. इनके अलावा शिवसेना की युवा सेना, महिला मोर्चा समेत कई संगठनों ने भी खुलकर उद्धव का साथ दिया था. शायद इसकी वजह महाराष्ट्र की 14 महानगर पालिकाओं, 208 नगर परिषद, 13 नगर पंचायतों में होने वाले चुनाव थे.

चुनाव आयोग में होगी सिंबल की लड़ाई?

सियासी पार्टियों को मान्यता देने और सिंबल अलॉट करने के लिए चुनाव आयोग 1968 के चुनाव चिन्ह (आरक्षण और आवंटन) आदेश पर चलता है. इस आदेश का पैराग्राफ 15 ये व्याख्या करता है कि पार्टी टूटने की सूरत में पार्टी का नाम और सिंबल किसे दिया जाए. इसे लेकर कुछ शर्तें हैं, जिन पर संतुष्ट होने के बाद ही चुनाव आयोग कोई फैसला लेता है. इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, किसी पार्टी में विवाद होने पर चुनाव आयोग पहले ये देखता है कि किस गुट के पास कितना समर्थन है. ये संगठन और विधायिका, दोनों के स्तर पर देखा जाता है. आयोग उस दल की शीर्ष समितियों और निर्णय लेने वाले निकायों की पहचान करता है. फिर ये पता लगाता है कि उनके कितने सदस्य या पदाधिकारी किस गुट का समर्थन करते हैं. आयोग इस दौरान हर खेमे को समर्थन देने वाले सांसदों और विधायकों की गिनती भी करता है. उसके बाद अपना फैसला देता है. चुनाव आयोग को पार्टी सिंबल को फ्रीज करने का भी अधिकार होता है. वह जरूरी समझे तो दोनों खेमों को नए नाम और चिन्ह के जरिए रजिस्ट्रेशन के लिए भी कह सकता है.

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Tags: ECI, Eknath Shinde, Shiv sena, Uddhav thackeray

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