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देश के राष्ट्रीय प्रतीक चुर्तुमुख सिंह की प्रतिमा को लेकर देश में नया विवाद छिड़ गया है. कांसे की ये भारी भरकम प्रतिमा नए संसद भवन में शीर्ष पर लगाई जाएगी.  इसमें शेर के हावभाव को लेकर विवाद है. सोचिए आप जब अशोक स्तंभ के शेर को राष्ट्रीय चिन्ह के बतौर स्कैच के जरिए कागज पर उतारने का जिम्मा दिया गया था, तो ये कितना गंभीर रहा होगा. जिस पेंटर को ये जिम्मा मिला, वो केवल शेर के हावभाव को जानने के लिए एक महीने तक 100 किलोमीटर की यात्रा करता रहा.

ये चित्रकार दीनानाथ भार्गव थे, जो मध्य प्रदेश के बैतूल के एक कस्बे में पैदा हुए थे. वो बचपन से ही रेखांकन और चित्रकारी में अपनी छाप छोड़ने लगे थे. अपनी इसी विधा को चमकाने के लिए उन्होंने 1949-50 में शांति निकेतन के फर्स्ट ईयर में दाखिला लिया. वो फाइन आर्ट्स का तीन साल का डिप्लोमा लेने वहां गए थे.

शांति निकेतन में कला दीर्घा के प्रभारी शिक्षक नंदलाल बसु थे, जो देश में ख्यातिलब्ध चित्रकार के तौर पर पहचान बना चुके थे. संविधान के हर पेज पर रेखांकन करने के साथ राष्ट्रीय प्रतीक के स्कैच बनाने का काम उनको सौंपा गया.

तब दीनानाथ 21 साल के थे
बसु ने अपने योग्य छात्रों की एक टीम बनाई, जो ये काम उनके साथ कर सके. उसमें उन्होंने फर्स्ट ईयर में छात्र दीनानाथ भार्गव को भी लिया. वो उसके काम से बहुत प्रभावित थे. वो उस समय 21 साल का था लेकिन कला में उतरने का गुर उसे बखूबी मालूम था.

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ये है राष्ट्रीय प्रतीक का वो स्कैच, जिसे दीनानाथ भार्गव ने सबसे पहले बनाया.

तब उन्हें राष्ट्रीय प्रतीक को स्कैच में उतारने का काम मिला
पहले राष्ट्रीय प्रतीक पर काम नहीं हुआ बल्कि संविधान के हस्तलिखित पेजों के लिए हर पेज की डिजाइनिंग और चित्रांकन का काम हुआ. ये काम उन्होंने अपने 05 स्टूडेंट्स में बांटा हुआ था. जब दीनानाथ ने अपना काम करके दिया तो बसु उसके काम से बहुत संतुष्ट हुए. तब उन्हें लगा कि संविधान के पहले पेज पर आने वाले राष्ट्रीय प्रतीक के स्कैच का काम उसे दे देना चाहिए. हालांकि ऐसा करने के लिए उन्होंने अपने शिष्य को ये गुरुमंत्र जरूर दिया कि समय जरूर लो लेकिन शेर के हावभाव और उसके बारे में पर्याप्त अध्ययन करके ही ये स्कैच कागज पर उतारना.

शेर को समझने के लिए रोज 100 किलोमीटर यात्रा करते
दीनानाथ को जब ये काम मिला तो उसकी गंभीरता जानकर उनके हाथ कांपने लगे. उन्होंने शेर के व्यवहार, बॉडी लेंग्वेज और बर्ताव को समझने के लिए दो काम किए. एक तो उन्हें शेर के  बारे में जो कुछ पढ़ने को मिला, वो सब पढ़ लिया. दूसरा शेर के व्यवहार और हावभाव को समझने के लिए कोलकाता के चिड़ियाघर जाने का फैसला किया. शांति निकेतन से चिड़ियाघर जाने और आने का मतलब था 100 किलोमीटर की यात्रा रोज.

शेर के व्यवहार को समझने के बाद स्कैचिंग करते
दीनानाथ भार्गव तकरीबन एक महीने तक रोज 100 किलोमीटर की यात्रा शांतिनिकेतन और जू के बीच करते रहे. रोज उसे देखते. उसके चलने फिरने के तरीके को देखते. उसके गर्वीले भाव को देखते. उसे गुर्राते देखते. उसकी बॉडी लेंग्वेज पर नजर रखते. फिर रोज लौटकर शेर का स्कैच इस तरह बनाने की कोशिश कि वो अशोक स्तंभ से शेरों से आत्मसात कर पाए और सजीव सा लगे.

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और फिर आखिरी स्कैच बनाया
दीनानाथ भार्गव ने राष्ट्रीय चिन्ह के स्कैच बनाने के लिए ना जाने कितने ही पोस्चर में सिंह के ऐसे स्कैच बनाए जो राष्ट्रीय प्रतीक के साथ न्याय कर पाए. फिर उन्होंने जब अपना आखिरी स्कैच बनाया तो उसमें उन्हें अशोक का सिंह गर्वीला, शासक सरीखा धीर-गंभीर, स्वाभिमानी और आत्मविश्वास से भरपूर लगा. इसे जब अपने गुरु बसु को दिखाया तो उन्होंने तुरंत इसको पसंद कर लिया. जब इसको दिल्ली भेजा गया तो वहां से भी इस पर तुरंत मुहर लग गई.

जो हमारा राजकीय प्रतीक बना
फिर यही सिंह हमारी राजकीय मुद्रा, राजकीय प्रतीक चिन्ह बन गया. संविधान के पहले पेज से लेकर सारे जरूरी सरकारी कागजों, मुद्राओं, पासपोर्ट आदि पर इसे प्रिंट किया जाने लगा.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाया
इसके बाद दीनानाथ भार्गव ने अंतरराष्ट्रीय पेंटर के तौर पर वास पेंटिंग की विधा में खूब नाम कमाया. उन्होंने अखिल भारतीय हैंडलूम बोर्ड के डिजाइन डिपार्टमेंट में नौकरी की. चूंकि वह इंदौर में पोस्टेड थे लिहाजा वहीं बस गए.

मधुबनी पेंटिंग्स को कपड़ों पर लाने का श्रेय उन्हीं को जाता है. यही नहीं डबल डेकर लूम और नई डिजाइनर चंदेरी साडियों के काम में उनकी मुख्य भूमिका रही. यूरोप में 1950 में लगाई गई उनकी आर्ट प्रदर्शनी बहुत हिट साबित हुई. उन्हें गोल्ड मेडल मिला था.

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