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2012 में फैजा अहमद खान की एक डाक्यूमेंट्री आई थी- ‘सुपरमैन ऑफ़ मालेगांव’. जी हां, वही ब्लास्ट वाला मालेगांव जहां मौसम नदी के एक तट पर रहते हैं मुसलमान और दूसरे पर रहते हैं हिन्दू, मगर इनका प्यार एक ही है- सिनेमा. फैजा की डाक्यूमेंट्री में, मालेगांव के लोगों की ज़िंदगी में पॉल्यूशन की तरह रचा बसा है सिनेमा, और इसे आगे बढ़ा रहा है यहां का लोकल टैलेंट, जिसमें निर्माता, निर्देशक, अभिनेता, संपादक, कैमरामैन आदि इत्यादि सब शामिल हैं, जब ये डाक्यूमेंट्री पहली बार देखी थी तो एहसास हुआ था कि दुनिया में सब प्रकार के परिवर्तन संभव हैं, हिन्दुस्तानियों का सिनेमा के प्रति प्रेम में कोई परिवर्तन संभव नहीं है.

फिल्मः सिनेमा बंदी
भाषाः तेलुगू
ड्यूरेशनः 98 मिनिट्स
ओटीटीः नेटफ्लिक्स

नेटफ्लिक्स पर हाल ही में एक बहुत प्यारी, मनभावन और मोहक तेलुगू फिल्म रिलीज हुई है- ‘सिनेमा बंदी’. ऐसा लगता भी है और निर्देशक प्रवीण कांद्रेगुला का कहना भी है कि ‘सुपरमैन ऑफ़ मालेगांव’ उनकी इस फिल्म के प्रमुख प्रेरणा स्रोतों में शामिल है. पहली नज़र में इस फिल्म में प्रभावित करने के लिए कुछ नहीं है. अगर प्रोड्यूसर राज और डीके को छोड़ दें, तो न कोई बड़ा सितारा इस फिल्म में काम कर रहा है, न इसके निर्देशक को कोई जानता है, न लेखक की फिल्म इंडस्ट्री में कोई पकड़ है और न ही कोई ऐसा नाम इस फिल्म से जुड़ा है जिसके दम पर फिल्म का प्रचार-प्रसार हो सके. इस फिल्म में जो बात इसे खास बनाती है, सबसे अलग बनाती और देखने के लिए बाध्य करती है वो है – ईमानदारी. जैसी हम गांव के सीधे साढ़े, निश्छल और भोले लोगों से उम्मीद करते हैं. ये वो भावना है जिस से हम लोग अब अछूते हैं. शहरी चकाचौंध और विकास की रफ़्तार से डरकर अपने खेतों की मेड़ पर बैठ कर समय काटती हुई ईमानदारी.

कहानियों में सरलता अब नहीं देखने को मिलती. फिल्म की कहानियों में कई लेयर्स होती हैं. प्रेमचंद की कहानियों जैसी स्वच्छता, हृषिकेश मुख़र्जी और साई परांजपे जैसे निर्देशकों की सरलता अब कम नज़र आती है. थोड़ा बहुत टीवीएफ द्वारा बनाई गयी वेब सीरीज “पंचायत” या ‘ये मेरी फॅमिली” में देखने को मिलता है. निर्मल, स्वच्छ और हारते हुए लोगों की कहानी. सिनेमा बंदी एक ऐसी ही कहानी है. एक कलाकार तो क्या एक दृश्य भी ऐसा नहीं है कि आप उस सीन में खुद को नहीं देख सकते. हर घटना आपके साथ हो सकती है. हर बात, हर कलाकार, परदे पर आने वाला हर पल आपकी ज़िन्दगी की किताब में छप सकता है. ये कहानी आपकी हो सकती है और ये जीत है लेखक वसंत मरिनगंती और कृष्णा प्रत्युष की. एक एक किरदार ऐसा लगता है, जो शायद आपके घर के पास रहता है. एक एक दृश्य ऐसा लगता है कि आप के सामने घट रहा है. आप किसी किरदार के प्यार में पागल नहीं हो जाते, या आंसू नहीं बहाते क्योंकि उसकी हर इमोशन आपके अंदर ही है कहीं.

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वीरा एक ऑटो ड्राइवर है. स्वाभाविक तौर पर गरीब है और पैसों का संघर्ष चलता रहता है. एक पत्नी है, एक बच्ची है और एक सेठ है जिस से पैसे लेकर ऑटो खरीदा गया है. किसी दिन एक सवारी उसके ऑटो में एक वीडियो कैमरा भूल जाती है और शुरू होती है वीरा के सपनों की उड़ान. महेश बाबू और पवन कल्याण जैसे कलाकारों की फिल्में देखने वाले वीरा को सूझता है कि अगर वो लो बजट फिल्म बना ले तो उस से होने वाली कमाई से वो अपनी दुनिया बदल सकता है. वीरा को फिल्म बनाने का कोई आईडिया नहीं है और न ही उसे रिलीज़ करने का, मगर अपनी ज़िन्दगी बदलने का सपना…बहुत बड़ा है. एक फोटोग्राफर दोस्त को फिल्म शूट करने के लयक समझता है. गांव के एक बुज़ुर्ग की कहानी पर स्क्रिप्ट जैसा कुछ लिखा जाता है, पूरे गांव में सबसे ठीक दिखने वाले लड़के को हीरो चुना जाता है. हीरो असल में नाई है. हीरोइन स्कूल जाने वाली एक लड़की है जो बीच शूटिंग में अपने बॉयफ्रेंड के साथ भाग जाती है और और फिल्म लटक जाती है. वीरा को नयी हीरोइन लेनी पड़ती है, जो सब्ज़ी बेचती है और जुबान चलाती है. ढेरों बाधाओं से गुज़रती फिल्म की शूटिंग चलती है, लेकिन एक दिन वो कैमरा टूट जाता है और उसको रिपेयर करने वाला, कैमरे के असली मालिक को इत्तिला कर देता है. तमाम झगड़ों के बाद भी वो मालिक अपना टूटा हुआ कैमरा ले जाता है. फिल्म का काम रुक जाता है, वीरा का सपना टूट जाता है. इसके बाद क्लाइमेक्स है, जो कि हर फिल्म की तरह सुखद है. उसका सस्पेंस बनाये रखते हैं.

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कहानी में सांकेतिक तौर पर कई सामाजिक रीति रिवाज़ों को शामिल किया गया है और कहीं कहीं कुरीतियों का मज़ाक भी बनाया गया है. फिल्म का हीरो अपना नाम महेश बाबू की तर्ज़ पर मारिदेश बाबू रख लेता है. जहां शूटिंग हो रहीं होती है वहां अधिकांश गांव वाले शौच करने आते हैं. शूटिंग देखते हुए गांव वाले मोबाइल पर हीरो की तसवीरें लेने लगते हैं और वो भी एक्टिंग छोड़ कर पोज़ देने लगता है. फिल्म शूटिंग के दौरान हीरोइन स्कूल यूनिफॉर्म में चली आती है और वहां उसका कॉस्ट्यूम नहीं होता. ऐसी परिस्थिति में वीरा की पत्नी और वो, ऑटो में जा कर कपडे एक्सचेंज कर लेते हैं. वीरा की पत्नी स्कूल यूनिफॉर्म में जो शर्माती है, वो फिल्म के नर्मोनाज़ुक मोमेंट्स में सबसे बेहतरीन था. शूटिंग के दौरान, दूसरी हीरोइन, गुंडों का सामना करने लगती है और खुद ही गुंडों की धुलाई कर देती है, तब वीरा उसे कहता है कि उसका काम भागना और चिल्लाना है, गुंडों की धुलाई तो हीरो का काम है. एक छोटा बच्चा “बाशा” अपने आप ही फिल्म की कंटीन्यूटी का काम संभल लेता है और डायरेक्टर का असिस्टेंट बन जाता है. एक जगह कैमरे की बैटरी ख़त्म हो जाती है तो उसको चार्ज करने की कवायद में वीरा अपनी पत्नी के टीवी को बंद कर के बैटरी चार्ज करता है और ज़बरदस्ती के बलिदान की बात सामने आती है वहीं वीरा की पत्नी अपने छुपाये हुए पैसों को वीरा की जेब में रख देती यही, जब उसे पता चलता है कि उसके पति के पास अब पैसे ख़त्म हो गए है. ऐसी कई छोटी छोटी बातें फिल्म की कहानी का हिस्सा है और इसे खूबसूरत बनाती हैं.

फिल्म के हीरो हैं विकास वशिष्ठ (वीरा), उनके सिनेमेटोग्राफर दोस्त संदीप वाराणसी (गणपति), हीरो राग मयूर (मारिदेश बाबू) और हीरोइन उमा वायजी (मंगा). इसके अलावा छोटी छोटी भूमिकाओं में और भी कलाकार हैं जो फिल्म में उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने की मुख्य कलाकार. इस में से किसी ने भी अभिनय किया है ऐसा नहीं लगता है. सब सहज नज़र आते हैं. संगीत, एडिटिंग और सिनेमेटोग्राफी परफेक्ट है. एक भी बात अजीब नहीं लगती. इस फिल्म में नाम के बजाये काम पर महत्त्व दिया गया है और इसलिए अनजान से चेहरों वाली ये फिल्म कई बड़े स्टार वाली फिल्मों से भी बड़ी है. प्रसिद्द अभिनेत्री समांथा अक्कीनेकी ने इस फिल्म की तारीफ की है और प्रोड्यूसर राज और डीके को इस साहसिक कदम की बधाई दी है.

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फिल्म के निर्माता राज और डीके स्वयं फिल्म मेकर हैं, उन्होंने कुछ साल पहले अचानक ही तय किया था कि वो फिल्में प्रोड्यूस भी करेंगे. उन्होंने अमेज़ॉन प्राइम का बहुचर्चित वेब सीरीज “द फॅमिली मैन” प्रोड्यूस की है और उसके साथ ही सफल हॉरर फिल्म “स्त्री”. एनएफ़डीसी के फिल्म बाज़ार में राज और डीके कई उभरते हुए लेखकों और फिल्म निर्देशकों से मिल रहे थे. इन्हीं में प्रवीण और उनके लेखक मित्र भी शामिल थे. बड़ी मशक्कतों के बाद राज ने इनकी कहानी सुनी और सोचने के बाद कहा कि इस पर एक 5-6 मिनिट की शॉर्ट फिल्म बना के दिखाओ तो आगे बात होगी. प्रवीण ने 5 मिनिट की तो नहीं बल्कि 40 मिनिट लम्बी फिल्म शूट कर के दिखाई. राज और डीके दोनों इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इस फिल्म को प्रोड्यूस करने का फैसला कर लिया लेकिन शर्त एक ही थी – इस फिल्म में एक भी जाना माना नाम नहीं होगा, सब अनजान कलाकार होंगे ताकि फिल्म की मूल भावना को सुरक्षित रखा जा सके. ऐसे प्रोड्यूसर हों तो फिल्म बेहतर नहीं बेहतरीन बनायी जा सकती है.

वैसे कई फिल्में ऐसी पहले बनी हैं जहां कहानी का मूल ही “फिल्म मेकिंग” है, जैसे मराठी फिल्म हरिश्चंद्राची फैक्ट्री लेकिन सिनेमा बंदी में जिन सीन्स को देख कर हंसी आती है, उन सीन्स के पीछे छुपे तल्ख़ तंज किसी और फिल्म में आज तक नहीं आये हैं. सिनेमा बंदी देखना बनता है. सिनेमा से प्यार करने वाले हर शख्स के लिए है. फिल्म के अंत में सन्देश भी है – हर कोई दिल से तो फ़िल्म बनाने वाला ही होता है. आइये फिल्मों से और फिल्म बनाने वालों से एक बार और प्यार कर लेते हैं.undefined

डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

Tags: Film review

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