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मलयालम फिल्मों में कहानी की नवीनता पर विशेष ध्यान दिया जाता है. उनके किरदार आम ज़िन्दगी से निकले हुए होते हैं इसलिए नाटकीयता बिलकुल नहीं के बराबर होती है. मलयालम फिल्मों की पटकथा में भी किरदारों की मानसिक स्थिति को सम्पूर्ण विश्वसनीयता के साथ रचा जाता है ताकि उनके द्वारा किया गया प्रत्येक काम, उनके किरदारों से अलग और फूहड़ न लगे. जो बात समझ नहीं आती वो है कि ऐसा क्या होता है जब एक लाजवाब मलयालम साइकोलॉजिकल थ्रिलर फिल्म का हिंदी रीमेक बनाया जाता है तो उसकी कहानी से छेड़छाड़ करना ज़रूरी हो जाता है, किरदारों पर विश्वास करना मुश्किल हो जाता है और पटकथा में भी फार्मूला से बचने की कोई कोशिश नहीं की जाती. ऐसे में बनती है फिल्म “फोरेंसिक”. निर्देशक विशाल फुरिया ने इस फिल्म में वही गलतियां की हैं जो कि एक आम निर्देशक कर बैठता है. फिल्म की कहानी है तो नए किस्म की लेकिन इसका ट्रीटमेंट थोड़ा फूहड़ है और थोड़ा कलाकारों की वजह से मात खा जाता है. ज़ी 5 पर रिलीज़ ये फिल्म वैसे तो देखने लायक है अगर आप कोई नए किस्म की फिल्म देखना चाहते हैं लेकिन आप हिंदी रीमेक क्यों देखें, इसका असली और मलयालम भाषा का स्वरुप नेटफ्लिक्स पर देखने को मिल जाएगा. आप सब-टाइटल के साथ इसे देख लें, कहीं ज़्यादा खतरनाक है.

फिल्म की शुरुआत में जॉनी खन्ना (विक्रांत मैसी) नज़र आते हैं जो एक क़त्ल की फोरेंसिक जांच करने के लिए बुलाये जाते हैं. फोरेंसिक जांच एक बेहद गंभीर विषय है. हर कोने की जांच कर के सबूत इकठ्ठा किये जाते हैं. अंग्रेजी फिल्मों में फॉरेंसिक विशेषज्ञ इतनी बारीकी से घटना स्थल की जांच करते हैं कि वे पुलिस को अपराधी तक पहुँचने का रास्ता साफ़ कर देते हैं. विक्रांत को एक ऐसा फोरेंसिक विशेषज्ञ बनाया है जो कि नाचते हुए अपराध स्थल पर पहुँचता है और एक महिला की पलंग पर पड़ी लाश देख कर कविता सुनाता है – जॉनी जॉनी, यस डार्लिंग. ऐसे ही कविता सुनाते सुनाते वो उस अपराध स्थल की जाँच भी कर लेता है और उस महिला के पति को अपराधी घोषित कर देता है. केस सॉल्व्ड यानि जॉनी की कविता का अंत – ओपन योर माउथ, हाहाहा. अभी तक लगता है कि विक्रांत अत्यंत प्रतिभाशाली विशेषज्ञ है और पुलिस की कार्यप्रणाली से खुश नहीं रहता इसलिए मज़ाक करते हुए केस सुलझाता है. दुर्भाग्य कि आने वाली पूरी 2 घंटे की फिल्म में विक्रांत एकदम सीरियस हो जाता है, सस्ते जासूस (पति या पत्नी के चरित्र की छानबीन करने वाले) की तरह व्यवहार करता है और पूरी कहानी में एक रुपये का फायदा नहीं करता.

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मेघा (राधिका आप्टे) फिल्म की हीरोइन हैं. विक्रांत की पुरानी मेहबूबा हैं और गाहे बगाहे उन्हें चुम्बन देती रहती है लेकिन अपनी बहन यानि विक्रांत की भाभी की आत्महत्या के बाद दोनों के रिश्तों में तनाव आ जाता है. राधिका एक ईमानदार पुलिस इंस्पेक्टर भी हैं और अपनी भांजी यानि विक्रांत की भतीजी की गार्डियन भी हैं. जब परदे पर राधिका आप्टे का पदार्पण हुआ था तो वो अपने बोल्ड रोल्स की वजह से चर्चा में रहती थी. उनकी अभिनय प्रतिभा हमेशा से संदेह में रही है. इस फिल्म में उनका अभिनय बिलकुल ही बेतरतीब है, सपाट है और उनके एक्सप्रेशन भी कहानी से मेल नहीं खाते. राधिका को खुद को तलाश करने की सख्त आवश्यकता है. उनकी हर फिल्म में वो एक जैसी ही नज़र आती हैं. देहरादून में पुलिस इंस्पेक्टर होने का उनके अभिनय से कुछ लेना देना नहीं है. उनकी डायलॉग डिलीवरी में भी भावनाओं से तालमेल कम ही नज़र आता है.

प्राची देसाई का किरदार अच्छा है. अनंत महादेवन का किरदार व्यर्थ है. विन्दु दारा सिंह बहुत समय और कंट्रोवर्सी के बाद परदे पर नज़र आये हैं और विक्रांत-राधिका की राम-सीता की जोड़ी के हनुमान बन के रह गए हैं. वो समझ ही नहीं पाते कि उन्हें सीरियस रहना है या कॉमेडी करनी है. विक्रांत के बड़े भाई के किरदार में रोहित रॉय हैं जिनका नाम अभय है लेकिन विक्रांत का नाम जॉनी क्यों हैं ये समझना ज़रा मुश्किल है. फिल्म में फोरेंसिक विशेषज्ञ के पास तरह तरह के इक्विपमेंट दिखाए गए हैं, यहाँ तक कि एक अदद 3-डी प्रिंटर भी है. एक जगह आ कर फिल्म अटक जाती है तो एक और फोरेंसिक विशेषज्ञ और उसकी सर्व-सुविधा युक्त लैब भी दिखाई गयी है. अब मज़े की बात. इस फोरेंसिक विशेषज्ञ का नाम है डॉक्टर सोलंकी. इस किरदार को निभाया है नरेंद्र गुप्ता ने जो टेलीविज़न के महा-सीरियल सी.आय.डी. में भी फोरेंसिक विशेषज्ञ बनते हैं और उनका नाम होता है डॉक्टर सालुंके. लेखक की कल्पना की उड़ान यहीं नहीं रूकती. एक सीन में डॉक्टर सोलंकी बड़े ही गर्व से विक्रांत को देखते हैं और कहते हैं “दरवाज़ा तोड़” यानी अब विक्रांत से इंस्पेक्टर दया शेट्टी के काम की उम्मीद है. रचनात्मकता का घोर अभाव है लेखक मण्डली अधिर भट (बंदिश बैंडिट्स), अजित जगताप (बलि)और विशाल कपूर (छोरी, अटैक) में. फिल्म में एक बेहद ही फूहड़ डायलॉग और है – इस शहर में कोई नया अंडर वियर भी खरीदता है तो सबको उसका रंग पता होता है. इस घटिया डायलॉग के बजाये भी ये फिल्म बन सकती थी.

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विशाल फुरिया का निर्देशन औसत से भी कम हो जाता है जब वो मलयालम फिल्म से भटकने का दुस्साहस करते हैं. मलयालम फोरेंसिक के निर्देशक थे अखिल पॉल और अनस खान, जिनकी ये पहली फिल्म थी. विशाल तो इसके पहले फिल्म बना चुके हैं लेकिन इस वाली में चूक गए हैं. विक्रांत का किरदार कॉमेडी करेगा, बेहतरीन फॉरेंसिक एक्सपर्ट रहेगा और फिर अचानक सीरियस हो जायेगा. फिल्म में छोटी बच्चियों की हत्या की गुत्थी सुलझानी है लेकिन ये कोई नहीं बताता कि बच्चियां ही क्यों, कोई छोटा बच्चा क्यों नहीं? कई सबूत होते हैं जो ये दिखाते हैं कि हत्यारे की लम्बाई कम है तो इंस्पेक्टर मेघा शहर के बौने व्यक्तियों को पकड़ने में लग जाती हैं. विक्रांत को घर में घुसना होता है तो विन्दु दारा सिंह साथी पुलिसवालों को यूँ ही भगा देता है. बचकानी स्क्रिप्ट को रिजेक्ट करने का हक़ निर्देशक का होता है लेकिन इस बार ऐसा कुछ विशाल ने नहीं किया. फिल्म में संगीत भी है, अद्रिजा गुप्ता का. इतने बेतुके गाने हैं, इतने बेसुरे गाने हैं कि एक भी याद नहीं रहता या कोई छाप नहीं छोड़ता. साइकोलॉजिकल थ्रिलर में बैकग्राउंड म्यूजिक का महत्त्व भी दरकिनार किया गया है. अंशुल चौबे की सिनेमेटोग्राफी में पूरे देहरादून की खूबसूरती को हटा दिया है. ज़्यादातर शूटिंग कमरों के भीतर की गयी है. अभिजीत देशपांडे की एडिटिंग में भी कई कमियां हैं लेकिन फिल्म में थोड़ी बहुत जो रूचि जागती है वो सिर्फ एडिटिंग की वजह से है.

फोरेंसिक का मलयालम ओरिजिनल सटीक है, लॉजिकल है और कोई भी दृश्य या किरदार बेतरतीब नहीं है. हिंदी वाली फोरेंसिक में ये सभी खामियां हैं. विक्रांत अकेले फिल्म का बोझ उठा नहीं सकते थे और राधिका पर तो कोई भी फिल्म छोड़ी ही नहीं जा सकती. वीकेंड पर फिल्म देख सकते हैं, हालांकि अच्छी लगेगी इसकी कोई गारंटी नहीं है.

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डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

Tags: Film review, Radhika Apte, Vikrant Massey, Zee5

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