
सोशल सटायर यानी समाज की विसंगतियों पर किया गया व्यंग्य, सबसे आसान लगता है और सबसे कठिन होता है. वजह है सोशल सटायर को समझने का नजरिया. ज़ी 5 पर रिलीज फिल्म ‘हेलमेट’ कहने के लिए एक व्यंग्य है, कॉन्डम खरीदने के साथ जुड़े मेन्टल ब्लॉक पर, मगर इस बात को समझाने के लिए दो घंटे की फिल्म और विश्वास न करने लायक स्क्रिप्ट बनायीं जायेगी ये समझ नहीं आया. सड़क के किनारे हेलमेट बेचने वाले हेलमेट की कोई गारंटी नहीं होती, इस फिल्म में आपको सही मायने में हंसी आएगी इस बात की कोई गारंटी नहीं है.
भारत में कॉन्डम खरीदना एक राष्ट्रीय समस्या है. आम आदमी कई बार कोशिश करता है कि वो मेडिकल स्टोर से इसे और दवाइयों की ही तरह खरीद ले. ये समस्या की जड़ है. इसे दवाई की तरह खरीदा जाता है. किसी गुप्त रोग की दवाई की तरह और इसलिए इसे खरीदने वाले को गुप्त रोग का मरीज मान कर उसका मानसिक बहिष्कार कर दिया जाता है. कॉन्डम की उपयोगिता, उसकी उपलब्धता और उसे खरीदने को लेकर जो सामाजिक बंधन हैं, उसे दूर करने के लिए सरकार कई दशकों से करोड़ों रुपये खर्च कर रही है. लेकिन परिवार नियोजन के इस साधन को ऐय्याशी से जोड़ कर देखा जाता है. फिल्म हेलमेट की शुरुआत तो इसी बात पर फोकस करती है और फिर फिल्म में हीरो, हीरोइन, नाच, गाना, लड़की का खड़ूस पिता, लड़के के दोस्त आदि इत्यादि कूद पड़ते हैं.
उत्तर प्रदेश के शहरों में बसी कई विचित्र कहानियों में आयुष्मान खुराना ने नए किस्म के किरदार निभाए हैं. स्पर्म डोनर बनते हैं, अपने ही पुरुष दोस्त से प्यार करते नौजवान या फिर बालों की गिरती फसल से त्रस्त युवक. उनके छोटे भाई अपारशक्ति खुराना ने इस बार प्रयास किया है उन्हीं की परिपाटी को आगे बढ़ाने का. अनाथ लकी (अपारशक्ति) ऑर्केस्ट्रा में कुमार सानू स्टाइल में गाने गाता है, बाकि समय में शहर के बड़े रईस जोगी जी (आशीष विद्यार्थी) की सुन्दर बेटी रूपाली (प्रनूतन बहल) के साथ प्रेम-गीत गाने के लिए कॉन्डम खरीद नहीं पाता है. किस्मत की मार ऐसे पड़ती है कि लकी, उसका मुर्गी पालक दोस्त सुल्तान (अभिषेक बनर्जी) और ऊंचा सुनने वाला दोस्त माइनस (कमाल का काम करते हुए आशीष वर्मा), तीनों को पैसों के लिए एक ट्रक लूटना पड़ता है. ट्रक में मोबाइल की उम्मीद होती है लेकिन निकलते हैं कॉन्डम से भरे डब्बे जिन्हें जैसे तैसे बेच कर पैसा कमाने की मज़ेदार यात्रा, इन्हें पूरे समाज में एक हीरो बना देती है.
फिल्म की मूल कहानी गोपाल मुधाणे ने लिखी है. संभव है कि हाल के सालों में रिलीज होने वाले सोशल सटायर का ट्रेंड देखकर लिखी हो, मगर कहानी की आत्मा प्रशंसनीय है. कॉन्डम खरीद न पाने का मुद्दा पुराना नहीं है लेकिन उसे एक फिल्म की कहानी की शक्ल देना ज़रा कठिन काम है. लुका छुपी, मिमी और सूरज पर मंगल भारी जैसी फिल्मों के लेखक रोहन शंकर ने इसकी पटकथा और डायलॉग लिखे है. यहां मामला उतना अच्छा नहीं था. पटकथा यानि स्क्रीन प्ले में सब कुछ ऐसा लग रहा था कि फिल्म की लम्बाई कम रखने की प्लानिंग से लिखा गया था. इमोशंस को पकने से पहले ही सीन बदल जाता था. चोरी की घटना अति-नाटकीयता का शिकार थी. फिल्म की मूल आत्मा “कनफ्लिक्ट” होती है यानि वो बात या वो प्रश्न जिसे हल करना ही फिल्म का उद्देश्य होता हो. कॉन्डम बेचने की प्रक्रिया में ज़बरदस्त हास्य पैदा करने का स्कोप था वो बड़ी ही आसानी से निपटाया गया. गरीब ग्यारहवीं फ़ैल लड़का और पढ़ी लिखी अमीर लड़की के बीच की दीवार, यानि लड़की का पिता एक ही दृश्य में रंग बदल कर हाज़िर हो जाता है, वो खटका. क्लाइमेक्स में भी ड्रामा की कमी रह गयी.
अपारशक्ति से बड़ी उम्मीदें हैं. अभी तक सहनायक की भूमिका करते आ रहे हैं और उन सभी में उन्होंने बड़ा प्रभावित किया था. इस फिल्म में एक सीधे लड़के की भूमिका में उनसे निर्देशक काम नहीं करवा पाए. एक अच्छे टैलेंट के लिए निर्देशक को ज़्यादा मेहनत करनी पड़ती है. अभिषेक बनर्जी तो टैलेंटेड हैं हीं, उन्होंने रंग भी खूब जमाया है. सबसे अच्छी भूमिका में है आशीष वर्मा. उन्होंने ऊंचा सुनाने वाले की भूमिका में एक नए पैसे की ओवर एक्टिंग नहीं की है. प्रनूतन का काम भी ठीक है हालांकि किरदार को सही तरीके से लिखते तो शायद और अच्छा काम कर पातीं. आशीष विद्यार्थी और अन्य किरदारों की भूमिका बहुत कम है. निर्देशक सतराम रमानी की ये पहली निर्देशित फिल्म है. इसके पहले वो सहायक निर्देशक के तौर पर काम करते थे. काम कच्चा है. फिल्म में इमोशंस पर कम ध्यान दिया गया है. कोई भी दृश्य अपने सर्वोच्च पर पहुंचने से पहले ही बदल जाता है. छोटे शहर के लोगों की कॉन्डम खरीदने की आदतों में काफी मस्ती की गुंजाईश थी, वो नज़र नहीं आयी. नेशनल एड्स अवेयरनेस प्रोग्राम के हेड के तौर पर रोहित तिवारी ने अच्छा काम किया है. वो सहज लगे हैं, उन्हें थोड़ा स्क्रीन टाइम और देना चाहिए था. छोटे रोल्स में वो नज़र आते रहे हैं लेकिन इस फिल्म में उनके सीन और होते तो शायद व्यंग्य का मज़ा कुछ और होता.
संगीत अप्रभावी ही है. इस तरह की फिल्मों में अच्छे गाने प्रोमोशंस के लिए बहुत काम आते हैं और खासकर जब हीरो, ऑर्केस्ट्रा का लीड सिंगर है तो उसे सुपरहिट गाने मिलने चाहिए. गानों की वजह से फिल्म को और फायदा हो सकता था लेकिन नहीं मिल पाया. लुका छिपी और मिमी के एडिटर मनीष प्रधान ने हेलमेट एडिट की है और छोटी फिल्म बनाने का प्रेशर नज़र आता है. हेलमेट एक अच्छी कहानी है, अच्छा कॉन्सेप्ट है लेकिन फिल्म बोझ जैसी लगने लगती है क्योंकि इसमें दर्शकों को बहुत सी बातों को नज़र अंदाज़ करने के लिए कहा गया है, इमोशंस अपनी वाजिब ऊंचाई पर नहीं पहुंच पाए हैं और किरदार भी पूरी तरह डेलवप नहीं हुए हैं. थोड़ा एडल्ट विषय है लेकिन फिल्म साफ़ सुथरी है. शुभ मंगल ज़्यादा सावधान में थोड़ा असहज हो सकते हैं लेकिन हेलमेट में वो समस्या नहीं है. देख सकते हैं.
डिटेल्ड रेटिंग
कहानी | : | |
स्क्रिनप्ल | : | |
डायरेक्शन | : | |
संगीत | : |
ब्रेकिंग न्यूज़ हिंदी में सबसे पहले पढ़ें News18 हिंदी | आज की ताजा खबर, लाइव न्यूज अपडेट, पढ़ें सबसे विश्वसनीय हिंदी न्यूज़ वेबसाइट News18 हिंदी |
Tags: Film review, Helmet
FIRST PUBLISHED : September 07, 2021, 23:20 IST
Article Credite: Original Source(, All rights reserve)