
‘धंधा’ यानि व्यापार-व्यवसाय. बिज़नेस बहुत ही सम्मानजनक काम है ये. लेकिन कई बार नाम के साथ शब्दों के अर्थ बदल जाते हैं. व्यवसाय को जैसे ही ‘धंधे’ के नाम से पुकारो अकल दौड़कर कोठे पर पहुंच जाती है. कोठा यानि ब्रोथल, वेश्यालय, चकला, यहां ‘धंधा’ करने वाली औरतें – वेश्याएं. लेकिन क्या यह धंधा सचमुच इतना बुरा है जितना इसे माना जाता है ? क्या देह व्यापार करने वाली महिलाएं इतनी खराब हैं कि उन्हें हेय दृष्टि से ही देखा जाए?
देश की सबसे बड़ी अदालत ने इस सोच पर ब्रेक लगा दिया है. सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि वेश्यावृत्ति एक पेशा है. अभी तक हम जानते थे डाक्टरी, इंजीनिरिंग और वकालत एक प्रोफेशन है. 26 मई 2022 के फैसले के बाद वेश्यावृत्ति भी पेशे के रूप में स्वीकार की जाना चाहिए.
साल की शुरुआत में फरवरी माह में एक फिल्म रिलीज़ हुई थी ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’. यह एक लड़की को जबरन कोठे पर बैठाए जाने के कथानक पर रची गई आलिया भट्ट की एक खूबसूरत और मार्मिक फिल्म है. फिल्म की मुख्य पात्र गंगूबाई मांग करती है कि ‘वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा दिया जाए.’ लगभग तीन महीने बाद मई माह के अंतिम सप्ताह में सुप्रीम कोर्ट फैसला देता है कि ‘स्वैच्छिक वेश्यावृत्ति अवैध नहीं है.’ केवल वेश्यालय चलाना गैरकानूनी है.’ हम यह कतई नहीं कर रहे कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में और फिल्म के पात्र की डिमांड में कोई संबंध है. हम सिर्फ तथ्यों को सामने रख रहे हैं. ‘गंगूबाई’ एक रियल कैरेक्टर गंगाबाई हरजीवनदास के जीवन पर लिखी हुसैन जैदी के नॉवेल पर बनी संजय लीला भंसाली की मूवी है.
डॉक्टर, इंजीनियर, वकील या दूसरे प्रोफेशन के लोग क्या करते हैं ? अपने शरीर का फिजिकली या मानसिक इस्तेमाल करके अपनी सेवाएं दूसरों को देते हैं और बदले में पारिश्रमिक प्राप्त करते हैं. यहां तक कि दिहाड़ी मज़दूर भी यही करता है. दूसरी तरफ सेक्स वर्कर्स क्या करते हैं? वे अपने शरीर का इस्तेमाल दूसरों को करने देने के बदले प्रतिफल प्राप्त करते हैं. हम यह बिलकुल नहीं कह रहे कि सभी प्रोफेशन एक समान होते हैं, कुछ अच्छे होते हैं कुछ बुरे. इस पर लोगों की राय जुदा हो सकती है कि कौन सा पेशा अच्छा है और कौन सा बुरा. अच्छे-बुरे का फैसला लोगों और समाज के हाथ में छोड़ देना चाहिए. लेकिन यह बात अपनी जगह कायम है कि सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की धारा 142 का उपयोग करते हुए ये फैसला दिया है कि ‘स्वैच्छिक वेश्यावृत्ति अवैध नहीं है.’
चलिए, अपन फिल्मों की बात करते हैं. आप जानते हैं डुगरूस कौन था ? यह 1983 की फिल्म ‘मंडी’ के पात्र का नाम था जिसे नसीरूद्दीन शाह ने जीवंत किया था. लंबे समय तक नसीर के प्रशंसक उन्हें इस नाम से बुलाते रहे. ‘मंडी’ उस दौर की फिल्म थी जब समान्तर और ऑफ बीट फिल्में धड़ल्ले से बन रही थीं. राजनीति और वेश्यावृत्ति पर कटाक्ष करने वाली इस फिल्म का निर्देशन श्याम बेनेगल ने किया था. फिल्म में उस दौर की दो समर्थ अभिनेत्रियों ने एक साथ काम किया था – शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल. नसीर, अमरीश पुरी भी थे.
‘दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन’ भूपेन्द्र का गाया ‘मौसम’ फिल्म का यह गीत आज भी पापुलर है. गुलज़ार निर्देशित इस फिल्म में संजीव कुमार और शर्मीला टैगोर ने खूबसूरत अदाकारी की थी. वेश्यावृत्ति पर आधारित फिल्मों में अधिकांश लड़कियों को उनकी मरज़ी के खिलाफ कोठे पर बैठा दिया जाता है. कहा जाता है यह ऐसा ‘वन वे’ है जहां से लौटा नहीं जा सकता. ‘मौसम’ में निर्देशक गुलज़ार इससे उलट कहानी कहते हैं.
यहां हीरो वैश्या को कोठे से खरीदकर इसलिए घर लाता है ताकि वह उसे बेटी का प्यार देकर अपना प्रायश्चित कर, लड़की यानि शर्मीला टैगोर को बेहतर इन्वायरमेंट और अच्छी जि़ंदगी दे सके. दरअसल, नायक संजीव कुमार ने लड़की की मां को प्यार में धोखा दिया था. इसलिए गरीब मां की बेटी उसके मरने के बाद वैश्या बन गई थी. मां और बेटी दोनों के रोल में शर्मीला टैगोर थी.
‘दस्तक’ 1970 की राजेन्द्र सिंह बेदी द्वारा लिखित और निर्देशित फिल्म थी. यह भी एक अनयूज़ुअल कहानी थी. फिल्म विषय पर नए नजरिए से बात करती है. यह वेश्याओं की बजाए उन लोगों पर फोकस करती है जो रेड लाईट इलाके में रहते हैं मगर देह व्यापार में संलग्न नहीं है. उनकी जि़ंदगी यहां कैसे बीतती है, फिल्म इस विषय को इमोशनली होल्ड करती है. नव दंपत्ति अनजाने में एक रेड लाईट एरिया में मकान किराए से ले लेते हैं. रोज शाम को उनके दरवाजे पर ग्राहक ‘दस्तक’ देने लगते हैं. दरअसल, यहां रहने वाली पिछली किराएदार एक मुजरा करने वाली लड़की थी. संजीव कुमार और रेहाना सुलतान की इस फिल्म के गीत बहुत सुंदर और अर्थपूर्ण थे.
‘हम हैं मता’-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह, उठती है हर निगाह खरीदार की तरह.’
‘चमेली’ एक ऑफ बीट फिल्म की तरह है, जिसमें करीना कपूर का ताज़गी भरा अभिनय देखने को मिलता है. अनंत बुलानी के निर्देशन में शुरू हुई ये फिल्म सुधीर मिश्रा को इसलिए निर्देशित करनी पड़ी चूंकि निर्माण के दौरान अनिल की मौत हो गई थी. फिल्म पर सुधीर की शैली की स्पष्ट छाप है, कालगर्ल की कहानी को जुदा अंदाज़ में कहती है.
‘तलाश’ आमिर, करीना की सस्पेंस फिल्म है, इसमें वैश्या का अहम किरदार है. चोरी-चोरी चुपके-चुपके’ सलमान-रानी मुखर्जी और प्रीटि जि़ंटा अभिनीत फिल्म है. ‘जूली’ 2006 की मूवी है 2016 में इसका सिक्वल बना.
‘बीए पास’ वेश्यावृति को अलग तरीके उठाती है. ये महिलाओं के हक में नहीं, पुरुषों के हक में बात करती है. मजबूर युवक को वैश्यावृत्ति में खींचने वाली अमीर महिलाओं की कहानी कहती है. अपने पति से असंतुष्ट अमीरज़ादियां एक युवक को उनके साथ सेक्स करने पर मजबूर करती हैं. ‘प्यासा’, ‘देव डी’, ‘लक्ष्मी’, ‘मर्दानी’ और ‘चांदनी बार’ फिल्में भी इसी विषय के इर्दगिर्द घूमती हैं.
‘आहिस्ता-आहिस्ता’ देवदासी प्रथा पर बनी खूबसूरत फिल्म थी. इसमें गिरीश कर्नार्ड, नंदा और कादर खान ने अभिनय किया था. कादर खान एक अलग और संजीदा रोल में दिखे थे. इस फिल्म का एक गीत बहुत मशहूर हुआ था, आज भी चाव से सुना जाता है. ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता’.
एक और फिल्म जिसके गीत फिल्म की जान थे. ‘यूं ही कोई मिल गया था सरे राह चलते-चलते’, ‘चलो दिलदार चलो’, ‘इन्हीं लोगों ने’, ‘ठाड़े रहियो’ जैसे लता के गाए चिरजीवी गीतों से सजी ‘पाक़ीज़ा’ एक तवायफ की जिंदगी की मार्मिक कहानी कहती है. यह मीना कुमारी की अंतिम फिल्म थी. रिलीज़ के दो माह बाद मीना कुमारी की मौत हो गई थी. बाद में फिल्म खूब चली.
वेश्यावृत्ति से जुड़े विषय पर जब भी बात होगी ‘गंगूबाई काठियावाड़ी’ के जि़क्र के बिना अधूरी रहेगी. आलिया भट्ट की दिल के दरवाजे पर सीधे दस्तक देने वाली अदाकारी कभी न भूलने वाली चीज़ है. बताते चलें गंगूबाई वेश्यालय में जबरन किसी को रखे जाने के खिलाफ थीं और इनकी मदद करती थीं. उन्होंने यौनकर्मियों और अनाथों की भलाई के लिए बहुत कुछ किया. अंडरवर्ल्ड डॉन करीम लाला को गंगूबाई राखी बांधती थी.
फिल्म के अर्थपूर्ण संवाद हमेशा कानों में गूंजते रहेंगे. सवाल है ‘आपने कमाठीपुरा के काले गुलाब देखे हैं.’ आलिया उर्फ गंगू अपने इस सवाल का जवाब भी खुद देती है – ‘हमारे मोहल्ले आईए कभी, पूरा के पूरा बगीचा मिलेगा.’ बता दें कमाठीपुरा मुंबई का वो इलाका था जहां वेश्यालय थे, गंगूबाई जहां, गंगा से गंगूबाई बनी. ‘सफेद साड़ी, सोने का दांत और सोने के दिल वाली’ गंगूबाई जगजीवनराम काठियावाड़ी, जिसने वेश्यावृत्ति को कानूनी दर्जा दिलाने की कोशिश की.’
…’हीरोइन बनने आई थी गंगू, कम्बख्त पूरा का पूरा सिनेमा बन गई.’
बात ग़ालिब के एक शेर की, फिल्म की शुरूआत इसी शेर से होती है. जितनी कमाल बात ग़ालिब ने दो लाईनों में कही है उतना ही कमाल का इस्तेमाल निर्देशक संजय लीला भंसाली ने फिल्म में किया है, गंगूबाई के संदर्भ में.
‘ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान ‘ग़ालिब’
तुझे हम वली समझते जो न बादा-ख़्वार होता.
(‘मसाईल-ए-तसव्वुफ़ – सूफीइज़्म की समस्याएं/ वली – संत/ बादा-ख़्वार – शराबी)
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