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बच्चों की कहानी पर फिल्में अब कम बनती है. बड़े सितारों की उपस्थिति फिल्म को हिट करवाने की गारंटी देती है ऐसा मान कर पिछले कुछ सालों से बच्चों को लेकर एक अच्छी कहानी वाली फिल्म देखने को नहीं मिली है. लेखक निर्देशक स्वरुप राज अपनी दूसरी फिल्म ‘मिशन इम्पॉसिबल’ लेकर हाज़िर हुए हैं जो 29 अप्रैल को नेटफ्लिक्स पर रिलीज की गयी. इस फिल्म की विशेषता है कि फिल्म के मुख्य कलाकार बच्चे ही हैं, लेकिन किसी भी समय ये फिल्म ऐसी नहीं लगती कि इसे सिर्फ बच्चे ही देख सकते हैं. फिल्म कॉमेडी है लेकिन थ्रिलर के अंश भी हैं और फिल्म में छोटे और महत्वपूर्ण रोल में तापसी पन्नू भी हैं जिन्होंने इस तरह की फिल्म में अभिनय कर के संभवतः ये दिखाने की कोशिश की है कि अच्छी कहानी वाली कोई भी फिल्म हो, वो करने के लिए तैयार हैं. फिल्म मजेदार है. थोड़ी थोड़ी देर में स्क्रीन पर ऐसा कुछ न कुछ होता ही रहता है कि आप फिल्म से नजरें हटा नहीं पाते. इस तरह की फिल्मों का बनना और देखा जाना, दोनों ही आज की तारीख में महत्वपूर्ण है. साफ़ सुथरी और बिना अश्लीलता के एक फिल्म कैसे मनोरंजक बनायीं जा सकती है ये मिशन इम्पॉसिबल में देखा जा सकता है.

कहानी एक गांव के तीन बच्चों की है जो कि गरीबी और अभावों की ज़िन्दगी से थोड़े परेशान हैं इसलिए दिन भर ये सोचते रहते हैं कि पैसा कैसे कमाया जाए. तीनों में एक अपने जनरल नॉलेज के दम पर ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में जाना चाहता है. दूसरा वाला, राम गोपाल वर्मा की तरह फिल्म निर्देशक बनना चाहता है और तीसरा अपने आप को क्रिकेट टीम में तेज गेंदबाज बनते हुए देखना चाहता है. छुटपुट तरीके से ये पैसा कमाने की कोशिश करते रहते हैं लेकिन एक दिन उन्हें दाऊद इब्राहिम के बारे में पता चलता है. अपनी क्षमताओं से अनभिज्ञ और फिल्मों से प्रेरित हो कर तीनों मुंबई जाने के लिए निकल पड़ते हैं ताकि दाऊद को पकड़ कर पुलिस को सौंप दें और 50 लाख का इनाम पाएं. कहानी करवट बदलती है और गलती से वो मुंबई के बजाये बैंगलोर पहुँच जाते हैं जहाँ दाऊद को पकड़ने के लिए वे छुटभैये उठाईगीरों के हाथों अपने पैसे गँवा बैठते हैं. घर की याद आती है तो अचानक उनमें से एक को सड़क पर से अगवा कर लिया जाता है. दूसरी और तापसी पन्नू एक पत्रकार है जो कि बच्चों के अपहरण और उन्हें शेखों को बेचे जाने के गिरोह का भंडाफोड़ करना चाहती है. बचे हुए दोनों बच्चे तापसी की मदद से उस जगह पहुँच जाते हैं जहाँ उनका दोस्त होता है. अपनी चालाकी और पुलिस की मदद से वे बच्चों की खरीद फरोख्त का वीडियो पुलिस तक पहुंचा देते हैं जो कि ऐन मौके पर आ कर रेड मारती है और बच्चों को बचा लेती है.

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फिल्म की ताकत है ये तीन बच्चे जो कि छोटे गांव के हैं लेकिन फिल्मों से और टेलीविजन से प्रभावित हैं. यही वस्तुस्थिति भी है. फिल्मों को देख देख कर बच्चों के मन में कई तरह के सपने और योजनाएं जन्म लेती रहती हैं. उनका कॉन्फिडेंस देखने लायक होता है. मुंबई जाने में कितना समय लगेगा ये समझने के लिए वो मैप पर सेंटीमीटर में दूरी नाप लेते हैं. लॉज में रहने का खर्च समझने के लिए वो एक आदमी को गलत रेट बता कर लॉज में भेजते हैं और लॉज मैनेजर और ग्राहक की बातचीत सुनकर अंदाजा लगाते हैं कि कितना किराया होगा. बस में जाने के लिए वो शहर के बाहर एक ढाबे से बस पकड़ते हैं ताकि उन्हें कोई देख न सके. गलती से जब वो मुंबई के बजाये बैंगलोर पहुंच जाते हैं तो तीनों में से सबसे पढ़ाकू बच्चा कहता है कि मुंबई का असली नाम बैंगलोर है. एक टीचर से कुछ ही घंटों में हिंदी सीखने के लिए वो इतनी अदाकारी से बात करते हैं कि टीचर भी तैयार हो जाता है इन्हें हिंदी सिखाने के लिए.

कहानी निर्देशक सवरूप राज ने लिखी है जिनकी पहली फिल्म एजेंट साइ श्रीनिवास अत्रेय एक बेहतरीन कॉमेडी फिल्म थी जिसमें एक सामान्य से आदमी की जासूस बनने की योजना पर व्यंग्यातमक कहानी रची गयी थी. ये फिल्म उसकी तुलना में कमजोर है. मनोरंजक है लेकिन पटकथा में कई जगह झोल हैं. तीनों बच्चे शहर का अंदाज़ा लेने के लिए कार से जाते हैं लेकिन कार कहां आती है और वो कार चलाना कैसे जानते हैं? तापसी पन्नू एक पत्रकार है लेकिन वो एक ही केस पर एक ही नेता पर ही स्टोरी क्यों करती रहती है ये समझ नहीं आता. पुलिस वाला जो उनकी मदद कर रहा होता है वो पहले से ही अपने साथियों की मदद क्यों नहीं लेता, ये नहीं पता चलता. बच्चे अगवा होने के बाद अपने रुबिक क्यूब के एक एक हिस्से को कार से बाहर फेंकते हैं ताकि पुलिस उनका पीछा कर सकते, लेकिन पूरे रास्ते में उनके अपहरणकर्ताओं की इस पर नजर भी नहीं जाती. अपहरण किये हुए बच्चों को एक बंगले में रखा जाता है और ये तीनों बच्चे एक हिडन कैमरा वहां लगा देते हैं जब कि वे खुद भी दूसरे बच्चों की तरह अपहृत हैं. पूरे मामले में भ्रष्ट नेता और उसके गुर्गे एकदम मूर्खों की तरह व्यव्हार क्यों करते हैं, ये समझना भी मुश्किल है. ऐसी कई गलतियां हैं जो थोड़ी देर के बाद चुभने लगती हैं. अच्छी बात ये है कि कहानी की रफ़्तार अच्छी है इसलिए स्क्रीन पर जो भी हो रहा है उस से नजरें नहीं बचाई जा सकती.

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तापसी का अभिनय ठीक ठाक है. एक सीन में जहाँ वो अपहरणकर्ताओं के सिक्योरिटी गार्ड को फंसा देती है वो देखने लायक है, बाकी जगह उनका काम ज़रुरत के मुताबिक ही है. किसी किसी जगह वो बेवकूफ भी लगी हैं. हर्ष रोशन, भानुप्रकाश और जयतीर्थ – तीनों ही फिल्म के असली स्टार हैं. न उनका भूगोल का ज्ञान अच्छा है और न ही अंग्रेजी की स्पेलिंग्स का. इन तीनों की वजह से फिल्म का पहला भाग एकदम मज़े से गुज़र भी जाता है. इन बच्चों के डायलॉग सुनते और सीन देखते समय ऐसा लगता है कि फिल्म एकदम लाजवाब कॉमेडी होने वाली है लेकिन फिर फिल्म क्राइम यानि अपहरण की तरह बढ़ जाती है और दर्शक थोड़ा मूर्ख महसूस करते हैं. मार्क रॉबिन का संगीत तकरीबन तकरीबन कर्कश कहा जा सकता है. किसी भी दृश्य में संगीत सही नहीं लगता. यही बात यारगेरा दीपक की सिनेमेटोग्राफी की भी है. जहां क्राइम कॉमेडी की लज़्जत आना शुरू होती है वहां अचानक विलन की हैवानियत का दृश्य आ जाता है और दोनों ही दृश्यों में कोई कनेक्टिंग लिंक नजर नहीं आती.

फिल्म देखते समय मज़ा तो बहुत आता है क्योंकि डायलॉग मज़ेदार हैं, बच्चों के पात्र बड़े ही मस्ती भरे और उम्र की मासूमियत के साथ बेवकूफी भरे हैं लेकिन बाकी समय फिल्म पता नहीं क्या कहना चाहती है. संभव है कि फिल्म की पटकथा पढ़ने में मज़ेदार लगी हो लेकिन इसका फिल्मांकन कई गुना बेहतर हो सकता था. फिल्म और बेहतर हो सकती थी यदि लेखक/ निर्देशक सिर्फ अपनी न सुन कर किसी एक्सपर्ट से स्क्रिप्ट के बारे में राय ले लेते. कहानी में मस्ती-मज़ाक के साथ साथ थोड़ा कंटीन्यूटी पर भी ध्यान दिया जाता तो फिल्म और बेहतर हो सकती थी. तथ्यात्मक गलतियों से मुक्ति पायी जा सकती थी. इन सबके बावजूद, तीनों बच्चों ने बढ़िया काम किया है. तापसी की जगह कोई भी एक्ट्रेस होती तो चल जाता लेकिन तापसी ने संभवतः फिल्म सिर्फ इसलिए की होगी कि स्क्रिप्ट बहुत बढ़िया है लेकिन स्वरुप ने इसे परदे पर उतारते समय कई गलतियां की हैं. दर्शक फिर भी फिल्म को देख सकते हैं क्योंकि बच्चों को लेकर फिल्म बनायीं नहीं जाती आजकल और ये फिल्म फैमिली के साथ बैठ कर भी देख सकते हैं.

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डिटेल्ड रेटिंग

कहानी :
स्क्रिनप्ल :
डायरेक्शन :
संगीत :

Tags: Film review, Netflix, Taapsee Pannu

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